संपादकीय ‘चुनावी पालाबदल’ (12 जनवरी) पढ़ा। जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें यूपी सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य है। चुनाव की घोषणा के बाद प्रदेश भर में तेजी से बदल रहे सियासी समीकरण ने राजनीतिक दलों के बंद कमरों से लेकर चौराहे तक सियासी चर्चाओं का बवंडर खड़ा कर दिया है। चुनाव का मौसम आया है, तो दलबदल और पालाबदल भी स्वाभाविक है।

चुनाव में जिस राजनीतिक दल का पलड़ा भारी दिखता है, उसमें घुसने की होड़ कुछ अधिक देखी जाती है। 1979 में जब भजनलाल ने दलबदल कर हरियाणा की पूरी सरकार को ही बदल दिया था, तो वह दलबदल की सबसे बड़ी घटना थी। उसके बाद दलबदल विरोधी कानून संसद ने पारित किया। तमाम विधानसभा चुनावों में भी ऐसा पालाबदल देखा गया, नेताओं ने पालाबदल को एक परंपरा बना दिया है। वही अब उत्तर प्रदेश में हो रहा है।

विशेषज्ञों का आकलन है कि सपा सरकार भी बना सकती है। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा छोड़ कर नेताओं के सपा में शामिल होने की होड़ लगी है। एक रपट के मुताबिक, 2016-21 के बीच 357 विधायकों ने दल बदल कर चुनाव लड़े। उनमें से 170 ही चुनाव जीत पाए। इससे यह साबित होता है कि अभी देश में लोकतंत्र का थोड़ा महत्त्व बचा है। उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव से अब तक इतना बदलाव आया है कि बेरोजगारी, महंगाई, अपराध, किसान आंदोलन आदि चुनाव के मुद्दे नहीं बन पा रहे हैं। सरकार को मतदाताओं के पक्ष में एक ऐसा कदम लेने की अवश्यकता है, जिससे नागरिकों का रुझान लोकतंत्र की तरफ बना रहे।

विभुति बुपक्या, आष्टा, मप्र