सन 1918 में एक महामारी फैली थी जिसे स्पैनिश फ्लू के नाम से जाना जाता है। विश्व की लगभग एक-तिहाई आबादी इस बीमारी की चपेट में आई थी और लगभग पांच करोड़ लोग इस महामारी का शिकार बने थे। कहा जाता है कि एक लाश को श्मशान में छोड़ कर आते थे तो वापस आने पर दो और तैयार मिलती थीं। पूरा विश्व दो साल तक इस महामारी से जूझता रहा।

आज जब हम कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं तो हालात देख कर इतना ही कह सकते हैं कि हमने 1918 में फैले स्पेनिश फ्लू से कोई सबक नहीं लिया। जब पिछले वर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन और दुनिया भर के विशेषज्ञ चीख-चीख कर चेतावनी दे रहे थे कि कोरोना की दो-तीन लहरें अभी और आएंगी और हर आने वाली लहर पिछली लहर से ज्यादा खतरनाक होगी, तब भी हमने उन चेतावनियों को अनसुना कर दिया।

विशेषज्ञों की बातों को गंभीरता से नहीं लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि कोरोना की पहली लहर के बाद ही हम लापरवाह हो ग?ए और यह घोषणा कर दी कि भारत ने कोरोना को हरा दिया है। पहली लहर के बाद हमें अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करना चाहिए था, अस्पतालों में बिस्तर बढ़ाने थे, आॅक्सीजन की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करनी थी, अस्पतालों में जीवन रक्षक प्रणालियों सहित स्वास्थ्य सुविधाओं के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने पर ध्यान देना चाहिए था, ताकि दूसरी, तीसरी लहर का सामना कर सकें।

लेकिन बजाय स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने के हमने अपना ध्यान चुनावी रैलियों पर, राज्यों के चुनाव जीतने पर और शादी समारोह, उत्सवों और कुंभ जैसे आयोजन पर केंद्रित कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि आज घर-घर में कोरोना पहुंच रहा है। मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और अस्पतालों की सांसे फूल रही हैं। श्मशान घाटों पर लाशों के ढेर लग रहे हैं। हर तरफ डर का माहौल है। इन हालात ने व्यवस्था की लापरवाही और निष्ठुरता को उजागर करके रख दी है।

’चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली</p>


मुफ्त में लगे टीका

यह वक्त आपदा का है। इसमें लोगों को संक्रमण से सुरक्षित करने के लिए टीकाकरण अभियान चलाया गया है। कई राज्य सरकारों ने अपने यहां सारी आबादी को मुफ्त टीका लगाने का एलान किया है। जबकि कई जगह यह पैसे लेकर लगाया जा रहा है। अब सुनने में आ रहा है कि भारत में कोविशील्ड के दाम छह सौ रुपए होने जा रहे हैं, क्योंकि विदेशी टीके भी इसी के आसपास होंगे। ऐसे में अगर टीके के दाम ज्यादा हुए तो लोग लगवाने से कतराने लगेंगे। आबादी का बड़ा तबका इतना पैसा खर्च कर पाने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में पूरे देश में सारे लोगों को टीका मुफ्त में दिया जाए। इससे लोग टीका लगवाने के लिए प्रेरित भी होंगे। जब हम चुनावों के प्रचार में करोड़ों-अरबों रुपए फूंक सकते हैं तो लोगों की जान बचाने के लिए टीके पर एकबारगी खर्चा क्यों नहीं कर सकते।
’देवेंद्र नेनावा, इंदौर</p>

सवाल आजादी का

दुनिया में प्रेस की आजादी की क्या स्थिति है, इसे लेकर हाल में वर्ल्ड प्रेस फ्रÞीडम इंडेक्स-2021 जारी हुआ है। इस सूचकांक में भारत एक सौ बयालिसवें स्थान पर है, जबकि पाकिस्तान को छोड़ कर भारत के पड़ोसी देशों की स्थिति भारत से काफी अच्छी है। भारत के लिए यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। इस सूचकांक पर नजर डालें तो कहा जा सकता है कि भारत (जो एक लोकतांत्रिक देश है) में प्रेस की स्वतंत्रता लगातार पतन की ओर जाती हुई दिखाई देती है या यह कहना भी गलत नहीं होगा कि यह एक वर्ग की गुलाम-सी बनती जा रही है ।

भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संबंध में देखें तो अनुच्छेद-19 का उल्लंघन होता साफ नजर आता है। क्योंकि जब प्रेस ही स्वतंत्र नहीं होगी तो लोग सरकार तक अपनी बातों को कैसे पहुंचाएंगे और जब सरकार तक उनकी बातें नहीं पहुंचेगी तो जनकल्याण नहीं हो पाएगा। प्रेस की स्वतंत्रता बाधित होने से कहीं न कहीं बोलने की स्वतंत्रता पर भी वार होगा।
’जितेंद्र कुमार, लखनऊ

नस्लभेद और माफी

नस्लभेद, जातिभेद, धार्मिक भेद और रंगभेद जैसी कुप्रथा क्या आधुनिक विश्व का देन है? ऐसा लगता तो नहीं है। जन्म के साथ ही ये बुराई इंसानों में घर कर गई होगी। मगर हम इसे तबसे जानते हैं जबसे इतिहास को संजो कर रखना शुरू किया है। दक्षिण अफ्रीका का उदहारण हमारे सामने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा मिलता है। यह मानवीय व्यवहार ही है कि हर गोरा इंसान काले की तुलना में खुद को श्रेष्ठ समझता है।

अब ये खबर आ रही है कि अग्रेजी शासन के लिए प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए हजारों भारतीयों व अफ्रीकी सैनिकों को वह सम्मान नहीं दिया गया जो एक सैनिक को मिलना चाहिए था। आधुनिक रंगभेद उन तमाम गोरे देशों ने फैलाया जिन्होंने एशिया, अफ्रीका या अमेरिका में सैकड़ों वर्षों तक राज किया। ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा की गई गलती के लिए अब वहां के रक्षा मंत्री बेन वालेस ने माफी मांगी है। इतने साल बाद ऐसी माफी का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। अच्छा होता ब्रिटेन भविष्य में ऐसी गलती नहीं दोहराने का भरोसा देता। क्योंकि ब्रिटिश राजघराने से अलग हुए प्रिंस हैरी और उनकी पत्नी मेघन ने भी राजघराने के अन्य सदस्यों पर रंगभेद करने का आरोप लगाया था।
’जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी,जमशेदपुर

भगवान भरोसे!

दानापुर दियारा आज भी अभिशप्त है। दियारवासियों के लिए मुख्यालय दानापुर शहर आना बेहद जोखिमभरा होता है। 23 अप्रैल को अकिलपुर से दानापुर के लिए निकली जीप जैसे ही पीपा पुल पर चढ़ी, चालक ने संतुलन खो दिया और गाड़ी रेलिंग तोड़ते हुए गाड़ी नदी में जा गिरी। इस हादसे में नौ लोगों की मौत हो गई। कुछ अभी भी लापता हैं। अगर आने-जाने के लिए सुगम रास्ते होते तब आज शादी वाली घर में मातम नहीं मनाया जाता। दियारा में आज भी पढ़ाई, कमाई, दवाई की कमी है। यही कारण है कि अधिकांश लोग यहां से पलायन कर गए हैं।

दियारावासियों के जीने का आधार मवेशी, खेती और मजदूरी है। लेकिन इनकी दशा पर किसी को तरस नहीं आता। सरकार ने भी इनके उद्धार के लिए आज तक कुछ नहीं किया। हाल का हादसा कोई पहली घटना नहीं है, ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति होते रहती है। पीड़ित कोई बड़े रसूख वाले नहीं होते, इसलिए इनके जीने-मरने से किसी सरकार या जनप्रतिनिधियों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता।
’प्रसिद्ध यादव, बाबूचक, पटना