पिछले साठ-सत्तर सालों से जिस रफ्तार से हिंदी के विकास व विस्तार के लिए सरकारी या गैर-सरकारी संस्थाएं कार्यरत हैं, उससे दुगनी रफ्तार से अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। खासतौर पर अच्छा रोजगार दिलाने के मामले में हिंदी अभी उतनी सक्षम नहीं बन पाई है जितनी कि होनी चाहिए थी। अंग्रेजी की ओर हमारी नई पीढ़ी के झुकाव का सर्वप्रमुख कारण यह भी है कि हिंदी में उच्च ज्ञान-विज्ञान को समेटने वाला साहित्य बिल्कुल नहीं है। अगर अनुवाद के जरिए कुछ है भी, तो वह एकदम बेहूदा और बोझिल है।
जब तक अपनी भाषा में हम मौलिक चिंतन नहीं करेंगे और हिंदी में मौलिक पुस्तकें नहीं लिखी जाएंगी, तब तक अंग्रेजी के ही मोहताज बने रहेंगे। इसके अलावा हिंदी को जब तक सीधे-सीधे ‘जरूरत’ से नहीं जोड़ा जाता और निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों-उपक्रमों आदि में भी हिंदी को सम्मानजनक स्थान नहीं मिलता, तब तक अंग्रेजी जैसा उसका वर्चस्व और वैभव बढ़ेगा नहीं।
’शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
खेलों की खातिर