उत्तराखंड के गांवों में तैनात ‘आशा’ (अक्रेडिटेड सोशल हैल्थ एक्टिविस्ट) स्वास्थ्य कार्यकत्रियों में इन दिनों सरकार के विरुद्ध आक्रोश है। इसकी वजह है परिवार नियोजन कार्यक्रम के अंतर्गत भारत सरकार से राज्य में आए वे कंडोम जिनका वितरण आशा कार्यकत्रियों को ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर जाकर करना है। इनके नाम ‘आशा निरोध’ को लेकर आशा कार्यकत्रियां आक्रोशित हैं। इसे अपना और महिलाओं का अपमान बताते हुए उन्होंने इसका वितरण करने से साफ इनकार कर दिया है। देखा जाए तो उनका यह आक्रोश सही है। उन्होंने सही पूछा है कि यदि इसका नाम ‘स्वास्थ्य मंत्री कंडोम’ रखा जाए तो उन्हें कैसा महसूस होगा? राज्य सरकार ने सारा दोष केंद्र सरकार पर मढ़ कर अपना पल्ला झाड़ लिया है और कंडोम की पूरी खेप वापस लौटाने का निश्चय किया है।
भारत में अक्सर सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के नामकरण के बहाने राजनीतिक और व्यक्तिगत लाभ लेने की प्रवृत्ति देखी जाती है और कांग्रेस राज में जवाहर या इंदिरा के नाम से अनेक महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के नाम रखे गए। इसके साथ ही महत्त्वपूर्ण भवनों, पार्कों, सुरंगों, मार्गों के नामकरण भी ऐसे ही होते रहे हैं, जिन्हें लेकर विवाद भी हुए हैं। बाद में, शायद वाजपेयी सरकार के समय से, व्यक्तिगत नाम के बजाय पदनाम से नामकरण होने लगे (जैसे प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना)। लेकिन बड़े लोगों के नाम पर हमेशा बड़ी चीजों के ही नाम रखे गए। ये नाम भी ऐसे ही नहीं रख दिए जाते, बल्कि सोच-विचार करके, अनेक उच्च पदाधिकारियों की संस्तुति से रखे जाते हैं। लेकिन ‘आशा निरोध’ नाम रखते समय क्या ऐसी प्रक्रिया रही होगी? शायद नहीं, क्योंकि हमारे देश और समाज में बड़ी चीजें और बड़े पद पर आसीन लोगों की ही प्रतिष्ठा का विचार किया जाता है।

यहां न तो कंडोम न आशा कार्यकत्रियां इस लायक समझी गई होंगी कि नामकरण से पहले सोच-विचार या संस्तुति की जरूरत महसूस हो। वरना कम से कम आशा कार्यकत्रियों से पूछा जाना चाहिए था।
दूसरी बुरी बात यह कि भारत आधिकारिक तौर पर परिवार नियोजन कार्यक्रम आरंभ (1950-60 के दशक में) करने वाला दुनिया का पहला देश है। लेकिन दुर्भाग्य से अगर यह सरकारी कार्यक्रम बन कर रह गया और समाज का कार्यक्रम नहीं बन सका तो इसका एक बड़ा कारण जिम्मेदार पदों पर आसीन और नीतियां बनाने वालों का ग्रामीण समाज की वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ होना भी रहा है। ग्रामीण समाज में परिवार नियोजन और कंडोम जैसे साधनों की बात करना आसान नहीं होता और जब इसका नामकरण आशा नाम से होगा तो इन कार्यकत्रियों को अपमानजनक स्थिति और शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा, यह अहसास नामकरण करने वालों को होना चाहिए था। यह आशा नहीं निराशा पैदा करता है।
’कमल जोशी, अल्मोड़ा, उत्तराखंड</p>