पहले एक बहुत ही ‘अजीब’ विचार। विचार यह कि ऐसी संस्था बनाई जाए, जो बीस साल से कम उम्र के बीस उद्यमियों को लाखों डॉलर की फेलोशिप देगी ताकि वे अपना उद्योग शुरू कर सकें। लेकिन यह फेलोशिप पाने की दो विचित्र शर्तें होंगी। पहली यह कि बीस साल से कम उम्र का यह भविष्य का उद्योगपति ‘कॉलेज ड्रॉप आउट’ हो। यानी पढ़ाई-लिखाई पूरी होने से पहले ही उससे मुक्ति पा ली हो। दूसरी शर्त यह कि उसके बिजनेस का आइडिया फाउंडेशन को ठीक लगा हो। क्या इस ऊल-जलूल विचार का कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध स्टार्ट अप इंडिया से है?

इस तरह के फाउंडेशन का फितूर जिस आदमी के दिमाग में उपजा था, उसका नाम था पीटर थिएल। 2010 में स्थापित यह फाउंडेशन पहले ‘ट्वेंटी अंडर ट्वेंटी’ के नाम से जाना जाता था। लेकिन आज इसका नाम है थिएल फाउंडेशन। यह फाउंडेशन वैज्ञानिक शोध, स्टार्ट अप और सामाजिक कार्यों के लिए फेलोशिप देता है। लेकिन गजब का भरोसा यह कि आपको स्कूल या कॉलेज ड्रॉप आउट होना चाहिए। तो क्या हम मान लें कि किसी भी क्षेत्र में कुछ नया सोचने और नया करने का काम ऐसा कोरा मस्तिष्क ही कर सकता है, जिस पर किसी भी तरह की औपचारिक शिक्षा के आखर न उकेरे गए हों? ऐसा मानना गलत नहीं होगा, और इसके लिए इतिहास आपका साथ देने में सक्षम है। न्यूटन, डार्विन, आइंस्टीन भी औपचारिक शिक्षा के मामले में फिसड््डी ही थे। सम्राट अकबर जैसे दूरदर्शी प्रशासक, कबीर जैसे संत के बारे में हम सब जानते ही हैं।

दरअसल ‘नयापन’, जो ‘स्टार्ट अप इंडिया’ की नींव है, उसके लिए ज्ञान की नहीं, एक अंतर्दृष्टि की जरूरत होती है। इस अंतर्दृष्टि का संबंध मस्तिष्क से न होकर भावना, अवचेतन और अचेतन मन से होता है। मन के इसी स्तर को भारतीय दर्शन अपनी तरह से आत्मा कहता है, अध्यात्म कहता है। इस स्तर पर विचार पलते-बढ़ते नहीं हैं, बल्कि कौंधते हैं। जब एक बार यह कौंध पकड़ में आ जाती है, तो वही बढ़कर नवीन बन जाता है।

इस लिहाज से स्टार्ट अप इंडिया के बारे में कहा जा सकता है कि इसके लिए भारत की चेतना की जमीन सबसे अधिक उपजाऊ है, क्योंकि यह देश मूलत: एक आध्यात्मिक देश है। यदि इस अभियान को बहुआयामी (मल्टी डायमेंशनल) तरीके से अपनाया गया, तो यह भारत को फिर से ‘विश्व-गुरु’ पद के निकट ले जाने में सहायक हो सकता है। इस रूप में यह अभियान आर्थिक से कहीं अधिक बौद्धिक भूमिका निभाने वाला सिद्ध होगा।
’प्रियंका कुमारी, गोरखपुर