अरुणेंद्र नाथ वर्मा की टिप्पणी ‘प्यार की बोली’ (दुनिया मेरे आगे, 4 फरवरी) पढ़ी। उन्होंने एक सार्थक संकेत किया है कि दिखावे के इस दौर में शब्द अपने अर्थ खो रहे हैं और हम पथराए हुए शब्दों से एक-दूसरे पर वार कर रहे हैं। ‘आई लव यू’ जैसे शब्द भी इसका अपवाद नहीं हैं।

लेकिन फिर भी एक बात जरूर कहना चाहूंगा। प्रेम के स्पंदन में होना, प्रेम के स्पंदन में होने को स्वीकार कर लेना और प्रेम के स्पंदन से अछूता रह जाना, ये तीनों अलग-अलग स्थितियां हैं। आई लव यू जैसे शब्दों का प्रयोग इन तीनों ही वर्गों के लोगों द्वारा होता है, लेकिन प्रेम के स्पंदन को स्वीकार कर लेने के बाद की स्थिति की तरंग ही कुछ और होती है। उस तरंग में व्यक्ति जितनी भी बार यह शब्द बोलता या सुनता है, उसे इन शब्दों के अलग ही आरोह-अवरोह ध्वनित होते मिलते हैं और वे कभी बासी या दिखावटी न होते हैं न लगते हैं।

यह हमारी त्रासदी है कि प्रेम में होने की स्थिति को समाज ने जितना कठिन बना दिया है, उससे ज्यादा कठिन हो गया है अपने उस स्पंदन में होने को स्वीकृति देना। ऐसे में बहुत कम लोग हैं जिन्हें गूंगे का यह गुड़ सचमुच मीठा लगता है।
मैं वह सौभाग्यशाली हूं।
अशोक गुप्ता, इंदिरापुरम, गाजियाबाद

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