लोकतंत्र रूपी देह में सत्ता और विपक्ष दो वैसी आंखे हैं जो जनता जनार्दन को कल्याणकारी राज्य के प्रकल्पों से रूबरू कराती हैं। साठ के दशक में प्रतिपक्ष की संख्या अति लघु होने पर भी वह राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा कर अपने तर्क-तीर से सत्ताधारी को निरुत्तर किया करती थी। इसी कालखंड में सड़क से संसद तक के आंदोलन के नारों और कृत्यों से जनहितकारी योजनाओं पर गंभीर और रचनात्मक वाद-विवाद संसद में हुआ करते थे। धीरे-धीरे नीतिगत और सार्थक विरोध ने निजी वैमनस्यता के बादल को घनीभूत कर दिया, जहां विपक्ष को सरकार की हर बात और योजना नागवार गुजरने लगती है। दूसरी ओर, सरकार को विपक्ष की आवाज सुनना जरूरी नहीं लगता है। सिर्फ विरोध के लिए विरोध की गर्जना ने लोकतांत्रिक मूल्यों को आज जिस चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, वहां देश में व्याप्त बुनियादी समस्याएं हाशिये पर चली गई हैं। अब एक बार फिर विपक्षी एकता की सुगबुगाहट भावनात्मक भूमंडल पर ही व्याप्त है, जहां नेता तो बहुत दिखते हैं, लेकिन नेतृत्वकर्ता का घोर संकट है।
यह सही है कि सशक्त विपक्ष ही सत्तादल को निरंकुश बनने से प्रतिषेध कर सकता है, लेकिन इसके लिए विपक्षी दलों को ईमानदारी से चिंतन करने की जरूरत है। हालांकि लोकसभा चुनाव में अभी लगभग तीन वर्ष की देरी है, लेकिन बुनियादी सवाल यही है कि जिस एकता की रणनीति अभी गर्भनाल में है, क्या चुनाव आने तक इसमें प्रभावी दमखम रह सकेगा! स्वतंत्रता के बाद अनेक बार विपक्षी एकता हुई, सरकार भी बनी, लेकिन अलग-अलग दलों के नेताओं के निजी अहं ने उन पहलो को अकाल मृत्यु का शिकार बना दिया। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार का गठन और इसके पतन के पन्ने भारतीय राजनीति के इतिहास में दर्ज हैं। एकता के मशाल थामने वालों को यह मीमांसा करना जरूरी लगना चाहिए कि जिन कारणों से भूतकाल में विपक्ष बिखर गया, उसके मद्देनजर वे यह सुनिश्चित करें कि वे अतीत से सबक लेकर अपनी मंजिल पा सकते हैं।
राष्ट्रीय दल की हैसियत से विपक्षी गोलबंदी का काम जिस कांग्रेस को करना चाहिए था, वह दायित्व अब क्षेत्रीय दलों के अगुवाई में होने की व्यूह रचना रची जा रही है। यह स्थिति कांग्रेस की चिंताजनक हालत प्रकट कर रही है। कुछ माह बाद होने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम ही संदेश दे सकते हैं कि दिल्ली का सिहांसन किसके भाग्य में संभव है। संसद को ठप्प कर सभी दल जिस अदूरदर्शिता और दिवालियेपन का परिचय दे रहे हैं, उससे उनकी एकता प्रयास में न तो रचनात्मक बोध भाव दिख रहा है और न राष्ट्रीय विमर्श की व्यापकता झलक रही है। विपक्षी एकता तब तक राजनीतिक जमीन को स्पर्श नहीं कर सकती, जब तक वे दल पूर्वाग्रह, दुराग्रह, वैमनस्य, ईर्ष्या, निजी हमले से उबर न जाएं।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार
सावधानी के साथ
पिछले डेढ़ साल से हमारे देश में शिक्षण संस्थान बंद है एवं पढ़ाई केवल आॅनलाइन ही कराई जा रही है। अव्वल तो आॅनलाइन पढ़ाई तक सभी बच्चों की पहुंच नहीं है और दूसरे इससे बच्चों का सही मात्रा में विकास कतई नहीं हो पा रहा है। आज स्कूलों को खोला जाना चाहिए या नहीं, यह हमें तय करना ही होगा। जब चारों ओर धीरे-धीरे सामान्य होने की स्थितियां बन रही हैं, उसमें जरूरी लगने लगा है कि सावधानीपूर्वक अब देश के नौनिहालों की शिक्षा स्कूली शिक्षा के रूप में ही हो।
आॅनलाइन पद्धति से हर बच्चे को लाभ मिल रहा है, यह कहना संभव नहीं है। निजी स्कूलों में कुछ हद तक ठीक चल रहा है, लेकिन सरकारी स्कूलों की में आॅनलाइन के चक्कर में पढ़ाई बिल्कुल नहीं हो पा रही है। इसके अलावा, निजी या सरकारी, दोनों स्कूलों में आॅनलाइन माध्यम से शिक्षा की गुणवत्ता पर गहरे सवाल हैं। हर शिक्षक प्रशिक्षित नहीं है, साधन भी मौजूद नहीं है। केवल शिक्षक के पास ही नहीं, बल्कि विद्यार्थी के पास भी आॅनलाइन पढ़ाई संबंधी उपकरण नहीं है। इसलिए सावधानी बरतते हुए और नियम-कायदे लागू करके स्कूल खोला जाना चाहिए। बच्चों की संख्या सीमित की जा सकती है और उन्हें क्रमगत से रूप से बुलाया जा सकता है। पालकों को भी अपने बच्चों के हित और भविष्य के बारे में सोचना चाहिए।
’मनमोहन राजावत ‘राज’, शाजापुर, मप्र