पिछले कुछ दशकों में तकनीकी विकास और तीव्र औद्योगीकरण से वैश्विक तापमान की वृद्धि दर में तेजी से उछाल देखने को मिला है। वायुमंडल के तापमान में अनियंत्रित रूप से हो रही वृद्धि के कारण विश्व के विभिन्न हिस्सों में मौसम में अप्रत्याशित बदलाव, सूखा और बाढ़ जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए विश्व के एक सौ सत्तानबे देशों ने 2015 में पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे।
जब ट्रंप ने पदभार संभाला, तो उन्होंने अमेरिका फर्स्ट की नीति को अपनाकर एकपक्षीयता को महत्त्व दिया और बहुपक्षीय मंचों के साथ-साथ पेरिस जलवायु परिवर्तन के सम्मेलन से भी किनारा करना शुरू कर दिया। ट्रंप ने इस समझौते को अमेरिका के आर्थिक हितों के खिलाफ बताया था और दावा किया था कि इसके कारण अमेरिका में 2025 तक पच्चीस लाख नौकरियां खत्म हो सकती हैं।
नतीजतन, आलोचनाओं की परवाह किए बिना अमेरिका पेरिस समझौते से बाहर आ गया। अब अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन के एजेंडे में जलवायु परिवर्तन एक प्रमुख विषय है और स्वच्छ ऊर्जा जैसे विषय भी स्पष्ट रूप से संलग्न हैं। वर्तमान में चीन (वैश्विक उत्सर्जन का सत्ताईस फीसद) के बाद अमेरिका (पंद्रह फीसद) विश्व में ग्रीनहाउस गैसों का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है।
ऐसे में अगर अमेरिका इस समझौते से अलग होकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में अपनी भूमिका के अनुरूप कटौती नहीं करता तो इससे पेरिस समझौते के तहत निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना एक बड़ी चुनौती बन सकता है।
पिछले चार वर्षों में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर भारत ने गंभीरता का परिचय दिया है। स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित किए हैं। साथ ही पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम कर रहा है।
2030 तक 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य और अंतराष्ट्रीय सौर गठबंधन की गतिशीलता इसका प्रमाण है। लेकिन भारत के लिए इन लक्ष्यों को पाने की राह इतनी आसान नहीं है। सबसे बड़ी बाधा वित्त और तकनीक का अभाव है।
जैसे ही ट्रंप ने पेरिस समझौते से बाहर आने का फैसला किया तो भारत के सामने सबसे बड़ी समस्या समझौते के अंतर्गत विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को वित्त और तकनीक मुहैया करवाने की आई।
दरअसल, अमेरिका और भारत सहित दूसरे विकासशील देशों को विकसित देशों के साथ मिल कर सौ बिलियन अमेरिकी डॉलर देने के लिए प्रतिबद्ध था। उस समय बात साफ हो गई थी कि अमेरिका के बिना पेरिस समझौते के मायने धूमिल हो सकते हैं।
सच यह है कि अमेरिका के पेरिस जलवायु समझौते में शामिल होने का फायदा भारत जैसे विकासशील देशों के लिए मील का पथर साबित हो सकता है। भारत के विकास घाटे को देखते हुए अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भारत को अमेरिका जैसे भागीदारों के साथ अधिकारिक सहयोग की आवश्यकता होगी।
साथ ही भारत को अपनी स्वच्छ ऊर्जा निवेश के लिए अमेरिका का लाभ भी मिलेगा। यों भारत स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में दूसरे देशों के मुकाबले काफी आगे निकल चुका है। विश्व के प्रतिष्ठित मंचों पर भारत ने स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में अपने प्रयासों का लोहा मनवाया है। इसलिए अमेरिका को इस क्षेत्र में निवेश के लिए भारत से बेहतर विकल्प नहीं मिलेगा।
’रोहित कुमार, आइजीएमसी, शिमला, हिप्र