साल 1983 से 1992 को अंतरराष्ट्रीय विकलांग दिवस का दशक घोषित किया था। भारत जैसे देश में दिव्यांग जनों की कुल संख्या तकरीबन तीन करोड़ है जो देश की जनसंख्या का तकरीबन दो फीसद से ज्यादा है। भारत में दिव्यांगता की परिभाषा दिव्यांगजन अधिनियम 1995 में दी गई है, इसके अलावा पुनर्वास परिषद अधिनियम 1992 का संबंध दिव्यांग लोगों से है।
देश में दिव्यांगों से संबंधित योजनाओं का क्रियान्वयन सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन होता है। दिव्यांग अधिनियम 2016 में दिव्यांगों के प्रकार सात से बढ़ा कर इक्कीस कर दिए गए हैं। दिव्यांगों को शिक्षा और नौकरी में आरक्षण तीन से चार फीसद कर दिया गया। इसके अलावा दिव्यांगों को आर्थिक सहायता देने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर निधि का निर्माण किया गया है और दिव्यांगों के लिए स्वावलंबन स्वास्थ्य योजना भी शुरू की गई है।
लेकिन इतने सालों के बाद भी रिपोर्टों के अनुसार देश में आधे दिव्यांगजनों को ही दिव्यांगता प्रमाण पत्र मुहैया कराया जा सका है। जबकि वास्तविक धरातल पर स्थिति कुछ और ही बयां करती है। दिव्यांगों के लिए किए जा रहे काम ऊंट के मुंह में जीरे जैसे ही साबित हो रहे हैं।
दिव्यांग जनों के लिए प्रमाण पत्र हासिल करना किसी चुनौती से कम नहीं है। जबकि अन्य देशों की तुलना में हमारे यहां दिव्यांगजनों को एक चौथाई सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही हैं। ऐसे में दिव्यांगों के साथ हो रहे भेदभाव को खत्म किया जाना चाहिए ताकि उनको भी समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके।
’अनुज कुमार शर्मा, जौनपुर (उप्र)
दोहरापन क्यों
उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाने के बजाय हम सब इसे बढ़ावा दे रहे हैं। प्रगति का पैमाना इस बात पर आधारित है कि आप कितनी ऊर्जा इस्तेमाल करते हैं। ऊर्जा उत्पादन के लिए प्रकृति का दोहन करना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि ऊर्जा प्राप्त करने के लिए जो उपाय किए जाते हैं, उनमें खतरों की संभावना रहती है।
गांधी के देश का आदमी घर में चार एयर कंडीशनर लगवा कर गौरवान्वित होता है और फिर बढ़ते प्रदूषण पर चिंता भी जाहिर करता है। प्लास्टिक प्रदूषण हो या कोई प्राकृतिक आपदा, हम सभी इस पर समय-समय पर अपनी चिंताएं जाहिर तो करते हैं, किंतु कितने लोग हैं जो ऐसी चिंताएं जाहिर करने के बाद प्लास्टिक के उपयोग को कम करते हैं या जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल में कमी लाते हैं?
दरअसल, हम चाहते हैं कि दूसरे लोग सादगी से रहें और हम अपनी पसंद का जीवन जीयें। खेद की बात है कि दुनिया के सभी देश भी ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाए हुए हैं। जो देश सर्वाधिक प्रदूषण फैलते रहे हैं, वे दूसरे कम विकसित देशों से अपेक्षा करते हैं कि वे ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण प्रदूषण को कम करने की कोशिश करें।
’सुभाष चंद्र लखेड़ा, न्यू जर्सी
अविश्वास की खाई
देश की सीमाएं जहां से खत्म होती थीं, वहां पर तो सरहदें होती थीं, लेकिन देश के भीतर सरहदों का निर्माण पहली बार देखने को मिल रहा है। दिल्ली की सीमाओं पर किसानों को रोकने के लिए अवरोधक तो लगे हुए थे, उसके बाद कंटीले तार और कंक्रीट की दीवारें, बड़ी-बड़ी कीलें लगा दी गईं और भी न जाने क्या-क्या इंतजाम किए गए।
इससे किसानों और सरकार के बीच की जो अविश्वास की खाई थी वह और चौड़ी हो गई। धरती मां जितना सहन करती है, धरती पुत्र होने के कारण किसानों में भी सहनशक्ति बहुत है। उन्होंने कांटों का जवाब फूलों से दिया। धन्य है हमारी धरती मां और उसके धरतीपुत्र।
’नवीन थिरानी, नोहर