आज मनुष्य का व्यवहार और सोच अनिश्चितता, शक, क्रोध, हिंसा और अहंकार वाला हो गया है। अमीर आदमी अपनी सारी इच्छाएं पूरी करने के बाद भी संतुष्ट नहीं है और गरीब आदमी अमीर बनने की चाह में क्रोध या फिर निराशा-हताशा की भावना से भरा हुआ है! आजकल मानवीय संबंध खत्म होते जा रहे हैं।
छोटी-छोटी बात पर बच्चे हों या बड़े, आपे से बाहर होकर हिंसक हो जाते हैं। प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी, बाप-बेटा, मित्र आदि किसी बात से नाराज होकर दूसरे को मार कर कई-कई टुकड़े कर इधर-उधर फेंक देते हैं। ऐसा लगता है कि आजकल इंसानियत का जनाजा निकल रहा है। मनुष्य का व्यवहार कई स्तर की विकृतियों का शिकार होता जा रहा है।
बेरोजगारी, गरीबी, आसमान छूती महंगाई, परिवार चलाने का बढ़ता हुआ खर्चा, पारिवारिक और सामाजिक संबंधों में बढ़ती हुई कटुता, सरकारी कार्यालयों में बिना रिश्वत के काम का न होना, पुलिस के द्वारा अपराधियों के खिलाफ वांछित कारवाई न करना, मालिकों का अपने नौकरों को उचित वेतन न देना और उनसे दुर्व्यवहार करना आदि बातें मनुष्य के मन में निराशा, क्रोध, हिंसा और प्रतिशोध की भावना पैदा करते हैं और मनुष्य आवेश में आकर कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है।
जब तक उपर्युक्त समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ़ा जाएगा, जब तक कोई तसल्ली देने वाला नहीं होगा। जब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि से छुटकारा पाने के लिए हम शांति और ध्यान का रास्ता नहीं चुनेंगे, योग नहीं करेंगे, अपनी समस्याओं का हाल किसी दूसरे को नहीं सुनाएंगे, हमारे मन का बोझ हल्का नहीं होगा, अवसाद कम नहीं होगा और मानसिक विकार पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकेगा।
विडंबना यह है कि जैसे-जैसे देश में विकास की चर्चा बढ़ रही है, वैसे वैसे समाज में अवसाद में भी वृद्धि हो रही है। जब हमारे पास कुछ नहीं था, हम बहुत सुखी थे, आजकल हमारे पास सब कुछ है, लेकिन हमारे पास सच्ची खुशी नहीं है, सुकून नहीं है, परिवार में सुख-शांति नहीं है।
चारों तरफ असहनशीलता बढ़ती जा रही है, छोटी बातों पर भी हम संयम खोने लगे हैं और मारपीट या गाली-गलौज करने लगे हैं। समझ में नहीं आता कि यह सब कुछ क्यों देखने में आ रहा है! कई बार लोगों का बर्ताव विक्षिप्तों की तरह लगने लगता है। मनोवैज्ञानिकों को समय-समय पर समाज के असंतुष्ट लोगों की काउंसलिंग करनी चाहिए और उन्हें ठीक मार्ग पर लाने की कोशिश करनी चाहिए!
शाम लाल कौशल, रोहतक, हरियाणा
अतिवाद का रास्ता
राष्ट्रवाद या अति राष्ट्रवादी विचारधारा किसी को रूढ़िवादी बना देता है। धर्म अध्यात्म के प्रति उसकी आस्था चरम पर पंहुच जाती है, जो आगे चलकर राजनीति को धर्म का रूप दे देती है। यहीं से शुरू होता है धार्मिक राष्ट्रवाद। इन दिनों दुनिया भर में कई देश में सत्ताधारी धर्म का प्रयोग करके सत्ता का सुख भोग रहे हैं या भोगने के फिराक में हैं। दरअसल, किसी भी राजनीतिक दल या नेता के लिए अपने मतदाताओं को जाल में फंसाने के लिए धर्म और आस्था से बढ़कर और कोई आसान रास्ता नहीं हो सकता।
शायद इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को इस बात का पता चल गया है। इसीलिए कुछ महीनों के लिए सत्ता से बाहर रहने के बाद उन्होंने धर्म का सहारा लिया। अब ऐसा लगता है कि इजराइल का अगली सरकार ‘धार्मिक कट्टरता’ के बूते चलेगी। इसका मतलब कि फिलस्तीनियों के लिए मुश्किलों का शायद एक नया दौर शुरू होने जा रहा है।
ऐसी आशंका जताई जा रही है कि कट्टर लोग सत्ता के सहारे फिलस्तीनियों पर हमले और बढ़ा देंगे। यों भी ऐसी खबरें आ चुकी हैं कि रोज नए क्षेत्रों में प्रवेश करते हुए इस धारा के लोग वहां अपना कालोनी सैनिकों की मदद से बना रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र अपने गठन के समय से ही जिस तरह इस मामले में कुछ नहीं कर पाया, सिवा मूकदर्शक बने रहने के, तो आगे भी इसमें कोई सुधार होने की संभावना नहीं दिखती।
जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर
मोलभाव के बरक्स
क्यों हम कुछ रुपए बचाने के लिए हमेशा गरीब दुकानदारों या अन्य रोजगार में लगे कमजोर लोगों के साथ मोलभाव वाली सौदेबाजी करते हैं और उसके लिए उसे कठघरे में खड़ा करते हैं? जबकि हम बिना किसी सौदेबाजी के काफी, पिज्जा और अन्य वस्तुओं पर काफी खर्च करते हैं। वहां हम एक बार भी ऐसी चीजों की कीमत नहीं पूछते। वास्तव में हमें गरीबों का सामान खरीदकर उनकी मदद करनी चाहिए।
हमें गरीबों के साथ समझदार और दयालु होना चाहिए, कंजूस नहीं, क्योंकि उनका आशीर्वाद हमें और आपको और अमीर बना देगा। लोग जब भी ठेला वाले से कुछ भी खरीदते हैं तो हमेशा कुछ रुपया कम करने को कहते है, लेकिन वही लोग जब बड़े-बड़े रेस्तरां में जाते है तो पचास या सौ रुपए केवल बख्शीश में दे देते हैं। अपने आसपास जो ठेला वाले लोग होते हैं, उन पर भी ध्यान देना चाहिए।
फैज रहमान, दिल्ली</p>
नाम की सहायता
समय के अनुसार ऋतु में परिवर्तन प्रकृति का नियम है। निश्चित अवधि के बाद मौसम का बदलना स्वागतयोग्य होता है। देश में सर्दी का मौसम अपने पूरे रंग में नजर आ रहा हैं। चारों ओर शीतलहर का प्रकोप है। चारों ओर कोहरे का साम्राज्य स्थापित हो चुका लगता है। सर्दी का मौसम बुजुर्गों और गरीबों के लिए विशेष कष्टदायक होता है। बढ़ती ठंड की वजह से स्कूल और कालेज बंद कर दिए गए हैं। सड़कों और बाजारों में सन्नाटा-सा पसर लगता है। दिहाड़ी मजदूरों को दोहरी मार झेलनी पड़ रही हैं।
सरकार की ओर से कुछ स्थानों पर अलाव की व्यवस्था और कंबल वितरण किया गया है, लेकिन बढ़ती ठंडक के आगे सरकारी सहायता ऊंट के मुंह में जीरा के समान साबित हो रही है। समाज के संपन्न लोगों को गरीबों की मदद के लिए आगे आना चाहिए।
हिमांशु शेखर, केसपा, गया