कहते हैं कि किसानों के घरों की छत से पानी टपकता है, फिर भी वे बारिश होने की दुआ करते हैं। पिछले कुछ दिनों से देश के किसान सड़कों पर नजर आ रहे हैं, तो इसलिए नहीं कि वे कहीं घूमने जा रहे हैं। बल्कि इसलिए कि केंद्र सरकार ने संसद में किसी तरह जो विधेयक पारित करवा लिए, वे उन अध्यादेशों की जगह लेंगे, जिन्हें किसान अपने लिए बेहद घातक मान रहे हैं।

दरअसल, किसान इन कानूनों के अमल में आने के बाद बनने वाली व्यवस्था से डरे हुए हैं और उन्हें लगता है कि अपने ही खेत में वे मजदूर बन कर रह जाएंगे। मौजूदा सरकारी कवायदों की यही नीति है। सवाल है कि क्या उनका डरना लाजिमी है? क्या यह सच में किसानों को अपने ही खेतों में मजदूर बनाने की नीति है? इन विधेयकों में तीन बिंदुओं का जिक्र किया गया है।

पहला, आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 है। इसके जरिए कई बहुत आवश्यक वस्तुओं के भंडारण की इजाजत दे दी गई है, सिवाय युद्ध और आपदा की स्थिति के। किसानों को डर है कि बड़ी कंपनियां उनके खेतों में उपजे सामान का भंडारण कर लेगा, लेकिन जब उन्हें इसकी जरूरत होगी तो वे कंपनियां उस वक्त तक नहीं बेचेंगी, जब तक कि बाजार में उस वस्तु की किल्लत न हो जाए। ऐसे में सामानों की कीमतें बढ़ेंगी।

अब सरकार कह रही है कि किसान अपने सामान का भी भंडारण कर सकता है और जब मूल्य बढ़ जाए तो बेच सकता है। हकीकत यह है कि बहुत कम किसान ऐसे हैं, जिनके पास भंडारण क्षमता होती है। फिर एक फसल बेचने के बाद जो पूंजी हासिल होती है, उन्हीं से वे दोबारा अपने खेत में कुछ बोते हैं। किसान के आर्थिक यथास्थिति से सब परिचित हैं। ऐसे में किसानों का डर स्वाभाविक है। दूसरे, कृषक कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक- 2020 के तहत कंपनियां (कुरकुरे, लैस, पारले-जी आदि) किसानों को अपने उत्पाद के अनुरूप खेती करने के लिए कहेंगी। यह खेती करने से पहले ही उपज का मूल्य तय करने अनुमति देता है।

उदाहरणस्वरूप अगर किसी कंपनी को अपने किसी खास उत्पाद के लिए गेहूं की आवश्यकता होगी तो वह किसानों को गेहूं की खेती करने कहेगी और किसान गेहूं देने से पहले ही मूल्य तय करेगा। सवाल यह है कि अगर फसल कटाई के वक्त गेहूं की कीमत पहले से तय कीमत से बढ़ गई तब किसान क्या करेगा! स्वाभाविक ही किसानों को लगता है कि उनकी स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी और वे अपने ही खेत में मजदूर बन जाएंगे।

इसी तरह, कृषक उपज व्यापार और सरलीकरण विधेयक, 2020 के जरिए किसान अपने अनाज को मंडी में भी बेच सकता है और मंडी से बाहर भी। जबकि खुद एनएसएसओ की रिपोर्ट कहती है कि मंडी में कुल छह फीसद किसान ही अपने अनाज को बेचते हैं। किसान को डर है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर इसका गहरा असर पड़ेगा, जबकि सरकार कह रही है कि यह पहले की तरह बरकरार है। बहरहाल, आगे इन विधेयकों के कानून के रूप में अमल में आने के बाद इसके असर को देखना होगा। फिलहाल किसान असहाय दिख रहे हैं।
’मो शादाब आलम, नई दिल्ली</p>