आज चारों ओर सूचना क्रांति का बिगुल सुनाई देता है। लेकिन इस शोर में दबे कराहते बचपन की आवाजें जैसे सब अनसुनी करते चले जा रहे हैं। आगे बढ़ते रहने की यह कैसी धुन है जहां एक दूसरे के लिए वक्त नहीं है। वास्तविकता से आंखें चुरा कर हम आभासी दुनिया में गुम रहते हैं। एक ‘टच और टाइप’ फोन ने खेलकूद और जमीनी हकीकत को जीवन से मानो ‘डिलीट’ कर दिया है। आभासी जगत ने मनुष्य को एक ऐसी पृष्ठभूमि में भेज दिया है, जहां एक दूसरे के बीच बड़ी खाई है। आज बच्चों के हाथों में कहानियों की किताबों की जगह स्मार्ट फोन है और फोन की स्क्रीन पर तेजी से टाइप करती हुई अंगुलियां हैं, जिन्हें देख कर माता-पिता खुशी से फूले नहीं समाते। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि अपने बचपन के जिस आनंद की यादें उनके चेहरे पर आज भी एक मुस्कान बन कर बिखर जाती हैं, क्या आने वाले समय में उनके बच्चे ऐसी यादों का संग्रह कर पाएंगे! उनका बचपन तो फोन के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गया है।
फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाट्सअप, वी-चैट के जरिए दोस्तों का एक जमावड़ा है, लेकिन मुसीबत के वक्त हाथ पकड़ कर चलने वाले हाथ नहीं। समाज किस रास्ते पर चल रहा है, पता नहीं। आज हर किसी के हाथ में मोबाइल है, जिस पर कई बार ऐसे गाने बजते हैं, जिन्हें परिवार के साथ देखा तो क्या सुना भी नहीं जा सकता। लेकिन आज बहुत सारे बच्चे इन्हीं गानों के दीवाने हो रहे हैं। वे अपने परिवार से धीरे-धीरे किस तरह किस रूप में कट रहे हैं, इसका आभास माता-पिता को भी नहीं हो रहा है। छोटे-छोटे मुहल्लों में बचपन असमय ही जवान हो रहा है और गाली-गलौज करना जैसे उनका तकिया-कलाम बनता चला रहा है। स्कूल से मतलब कम होता जा रहा है। नैतिकता और आपसी मदद की जो बातें उन्हें समझाने का प्रयास करते नजर आते हैं, उनकी नजरों में वे उनकी आजादी के खलनायक होते हैं। अगर इन बच्चों को जल्दी आभासी जगत से वास्तविक जगत की सच्चाई से साक्षात्कार नहीं करवाया गया, तो शायद वे समाज के लिए घातक ही साबित हों। (आरती, दिल्ली विवि, नई दिल्ली)
आतंक का सिलसिला:
पेरिस में शानिवार की शाम को सिलसिलेवार हुए बम धमाकों में सवा सौ लोग मारे गए। आतंकवादी संगठन आइएस ने घटना की जिम्मेदारी ली। यह घटना आतंकवाद के बढ़ते कहर को दर्शाती है। इससे पहले भी आतंकवादियों द्वारा अनेक बड़ी आतंकी कार्रवाइयों को अंजाम दिया गया है, जिससे अनेक बेगुनाह, निर्दोष लोगों की जानें गई हैं। भारत में भी मुंबई के आतंकवादी हमलों की यादें अभी ताजा है। कुछ समय पहले पाकिस्तान के एक स्कूल में हुए आतंकी हमलों में भी बहुत सारे मासूम बच्चों की जान गई। तब भी दुनिया भर में शोक जताया गया था।
अब देखना यह है कि दुनिया के शक्तिशाली देश इस घटना के बाद आतंक के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेंगे या यह घटना भी सिर्फ सहानुभूति और शोक जता कर भुला दी जाएगी। आज आतंक का खौफ इस कदर बढ़ा है कि कोई भी नागरिक खुद को कहीं भी सुरक्षित महसूस नहीं करता। यह समस्या किसी एक देश की परेशानी नहीं, एक वैश्विक समस्या है। आवश्यकता इस बात कि है कि दुनिया के तमाम देशों के नेता एक साथ बैठ कर इस भयानक कहर से स्थायी तौर पर निपटने की रणनीति बनाएं। उन्हें अपनी सीमाओं पर सुरक्षा को लेकर व्यापक प्रबंध करने होंगे और अपनी सुरक्षा एजेंसियों को आतंकवाद के कहर से निपटने के लिए आधुनिक तरीके से प्रशिक्षित करना होगा, ताकि भविष्य में होने वाले ऐसे आतंकी कहर से बचा जा सके। (मोहन मीना, वाराणसी)
लापरवाही का हासिल:
लगातार बढ़ती आतंकी घटनाओं को देखते हुए अफसोस होता है कि कुछ लोग चंद लोगों के बहकावे में आकर हजारों बेकसूरों मौत के घाट उतार रहे हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि ज्यादातर आतंकी कम उम्र के और कम पढ़े-लिखे युवा होते हैं, जो पैसे के लालच में बहक जाते हैं। आतंक की गिरफ्त में आते बच्चों को छोड़ भी दें तो सामान्य हालात में भी आज भौतिकता की दौड़ में हर आदमी पैसे के पीछे भाग रहा है। वह अपने बच्चे को समय नहीं दे पा रहा। इस कारण बच्चे किसी के बहकावे में आसानी से आ जाते हैं।
इसे थोड़े बड़े दायरे में देखें तो इसी स्थिति का आतंकवादी संगठन फायदा उठाते हैं। यह भी देखने में आ रहा है कि पकड़े गए आतंकी गरीब परिवार से होते हैं। ऐसे परिवार के युवाओं को भी आतंकवादी संगठन अपने साथ आसानी से मिला लेते हैं। विडंबना यह है कि आजादी के बाद अभी तक लोगों की सोच ज्यों की त्यों है। अभी भी हम जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठ नहीं पाए हैं। अगर हम और हमारी सरकारें इन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दें तो इन समस्याओं से हम बहुत हद तक निपट सकते हैं। (अरुण कुमार निषाद, लखनऊ विवि)
भाईचारे के लिए:
देश में बढ़ रही असहिष्णुता के विरोध में समाज के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा अपनी नाराजगी व्यक्त करने का रास्ता पुरस्कार वापसी के रूप में अपनाया गया। ऐसा पहले भी होता रहा है। कलाकारों की समझ में विरोध का यही तरीका उनके लिए सर्वोत्तम हो सकता है। लेकिन हमें भी समझना होगा कि गुलामी के उस दौर में घटित वीभत्स घटनाओं और दमन की कार्रवाइयों की तुलना आज के लोकतांत्रिक भारत में कुछ असामाजिक तत्त्वों द्वारा की जा रही उन्माद की कारस्तानियों से नहीं की जा सकती। लेखक और कलाकार किसी राष्ट्र की अमूल्य निधि होते हैं। बेहतर हो कि वे सभी सरकार और आम जनता के साथ संवाद कायम करें और देश में बढ़ रही असहिष्णुता के विरुद्ध भाईचारे की भावना विकसित करने का देशव्यापी मुहिम छेड़ें। (जितेंद्र सिंह राठौड़, गिलांकोर)