आज के समय में अन्न संकट एक गंभीर समस्या बनकर उभर रहा है। पृथ्वी की उर्वरक क्षमता दिन-प्रतिदिन घटने के कारण हमें खेत से पर्याप्त मात्रा में उत्पादन नहीं मिल रहा है और जितना मिल भी रहा है उसमे से हम चालीस फीसद बर्बाद कर देते हैं, जिसके कारण बहुत से लोगों को भूखे पेट सोना पड़ता है।
आजकल शादी समारोहों, उत्सवों, होटल रेस्तरां में सबसे अधिक खाने की बर्बादी देखने को मिल रही है। शादियों में आयोजन पक्ष द्वारा जरूरत से अधिक व्यंजन-भोजन उत्पाद बनाने का नया फैशन चल पड़ा है। अधिकतर तो यह सिर्फ दिखावे की खातिर हो रहा है और कुछ जगहों पर आयोजन पक्ष द्वारा सिर्फ इसलिए किया जाता है, ताकि समारोह के बीच में खाने की कमी के कारण किसी आशंकित घटना से बचा जा सके।
वधु पक्ष की मजबूरी समझी जा सकती है, क्योंकि यह समाज में असम्मान का कारण बन सकता है। पर सबसे अधिक दुख तब होता है जब शादी में आया हुआ व्यक्ति वहां पर बने हुए सभी व्यंजन को सिर्फ चखने भर की चाह मात्र में अपनी थाली में सभी व्यंजन भर लेता है और अंत में बिना पूरा खत्म किए हुए उसे कचरे में फेंक देता है।
सभी जानते है कि हर व्यक्ति की खाने की एक सीमा होती है। अब जब चूंकि वह भोजन जूठा होकर कचरे में पहुंच जाता है तो वह किसी के खाने योग्य नहीं रह जाता है। भोजन की बर्बादी के प्रति सभी को चिंतित होना चाहिए, क्योंकि बहुत सारे संगठन हर समय जरूरतमंद लोगों के लिए भोजन के इंतजाम में लगे होते है कि किसी तरह वे उन तक सही और उचित मात्रा में भोजन पहुंचा सके। अगर हर व्यक्ति अपनी थाली में सिर्फ अपने जरूरत के हिसाब से भोजन ले और अतिरिक्त बचे हुए साफ भोजन को किसी तरह इन संगठनों से संपर्क करके जरूरतमंद लोगों तक खाना पहुंचाया जा सके तो बहुत सारे गरीबों का पेट भरा जा सकता है।
अगर पूरे देश में सभी लोग जागरूक हो जाएं तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई विश्व रैंकिंग में भारत की स्थिति सुधारी जा सकती है जिससे भारत का गौरव पूरे विश्व में फैलेगा। सिर्फ जरुरत के हिसाब से भोजन अपनी थाली में लेने के लिए हमें यह शुरुआत अपने घर से करनी होगी। हमें घर में छोटे बच्चो के सामने अपनी थाली में उतना ही भोजन लेना चाहिए और बच्चों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
बच्चों को बचपन से ही अन्न का महत्त्व, किसान की मेहनत आदि के बारे में समझाना चाहिए, ताकि अगर वे अपने सामने किसी गरीब और भूखे इंसान को देखें तो अपना भोजन उनके साथ बांट लेने के लिए आगे बढ़ें।
आरती कुशवाहा, गुरुग्राम।
चिंताजनक हादसे
भारत में बढ़ती रेल दुर्घटनाएं चिंता का विषय हैं। एक तरफ हम वंदेभारत जैसे दूरगामी ट्रेनों के परिचालन कर रहे हैं, बुलेट ट्रेन की ओर अग्रसर हैं तो दूसरी तरफ रेलगाड़ियां दुर्घटनाग्रस्त हो रही हैं। ओड़ीशा के बालासोर में जहां करीब तीन सौ लोगों की जान चली गई, वहीं अब बंगाल में दो मालगाड़ियों के बीच टक्कर हो गई। बांकुड़ा के ओंडा स्टेशन की लूप लाइन पर बिष्णुपुर की ओर एक मालगाड़ी खड़ी थी।
इसी दौरान बांकुड़ा से विष्णुपुर जा रही एक और मालगाड़ी लूप लाइन में घुस गई। चलती मालगाड़ी खड़ी मालवाहक ट्रेन के पिछले हिस्से से टकरा गई। इसकी गति तेज होने के कारण उसका इंजन दूसरी मालगाड़ी के ऊपर चढ़ गया। साथ ही कई डिब्बे मुड़ भी गए। हालांकि इस हादसे में जानमाल की क्षति नहीं हुई, लेकिन घटना भयावह है।
सवाल है कि दुर्घटनाओं की वजह क्या है? कहीं इसका कारण निजीकरण या परिचालन के कर्मचारियों में कमी तो नहीं है? कर्मचारियों की कमी से निर्धारित घंटे से अधिक काम, चालक, गार्ड, स्टेशन मास्टर, कंट्रोलर पर दबाव आदि का प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है? अगर ऐसा है तो यह सरकार की नीतियों में दोष है। सरकार को क्षमता के अनुरूप कर्मचारियों को बहाल करना चाहिए।
इस मामले में जापान से सीखना चाहिए कि वहां कितनी तेजी से ट्रेन चलती है और दुर्घटना न के बराबर होती है। जापान में हर तीन मिनट के अंतराल पर एक बुलेट ट्रेन चलती है। सबसे तेज होने के बाद भी आज तक इनकी वजह से शायद ही कोई दुर्घटना हुई। इन गाड़ियों पर एक उन्नत सुरक्षा यंत्र लगा हुआ है। इसमें आधुनिक सेंसर लगे हुए हैं, जो भूकंप और प्राकृतिक आपदा का पहले ही पता लगाने में सक्षम हैं।
भारतीय रेलवे में इतने सारे गैर-रेलवे के राजनीतिक लोग सदस्य, अध्यक्ष बने हुए होते हैं, जिन्हें रेलवे के बारे में शायद ही कोई समझ होती है। रेलवे के काम की गुणवत्ता ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं के कमीशनखोरी, रिश्वतखोरी और मुनाफाखोरी में चली जाती है। अब ऐसे में रेलगाड़ियों की दुर्घटना के कारण समझे जा सकते हैं।
प्रसिद्ध यादव, बाबूचक, पटना।
बदहाल किसान
‘रियायत के बावजूद किसान की मुश्किलें’ (26 जून) आलेख पढ़ा। खेती-किसानी में लागत इतनी बढ़ गई है कि कर्ज से पार पाने में आज का किसान बेबस हो गया है। केवल सबसिडी से किसानों की मुश्किलों का हल नहीं निकाला जा सकता है, क्योंकि जब फसलें तैयार हो बाजार में आती हैं, दाम गिर जाते हैं, कर्ज के तकाजे में उसे अपनी फसल औने-पौने दाम पर बेचना ही पड़ता है।
खेती पर भारी पड़ता कर्ज किसानों को आत्महत्या जैसे त्रासद कदम उठाने पर मजबूर कर देता है। अमेरिका जैसा सहयोग अपने देश के किसानों के साथ भी किया जाना चाहिए। शोषण और घाटे के चलते खेती-बाड़ी को ज्यादा दिन जिंदा नहीं रखा जा सकता। खाद बीज की अमानकता के कारण कई बार बाजार में किसान ठगा जाता रहा है।
कृषि प्रधान देश में बड़ी विडंबना की बात है कि किसान बदहाली में जीवनयापन कर रहा है। यह समझने की जरूरत है कि अगर देश का किसान बदहाल रहेगा तो बाकी आम लोगों के जीवन पर इसका क्या दूरगामी असर पड़ेगा।
हुकुम सिंह पंवार, इंदौर, मप्र।