ऐसा नहीं है कि इन दिनों ही किसान सड़कों पर हैं, बल्कि यह स्थिति किसानों के लंबे संघर्ष का नतीजा है। सवाल है कि किन परिस्थितियों में किसान सड़कों पर उतरने को बाध्य हुए? एक तरफ सरकार कह रही है कि वे भ्रमित हैं। आखिर वे भ्रमित हुए ही क्यों? कानून बनाने के समय उन्हें विश्वास में ले लिया गया होता तब शायद यह स्थिति देखने को नहीं मिलती और न ही कोई उन्हें भरमाने का प्रयास करता। इस बीच विशेष बात देखने को मिल रही है कि किसान आंदोलन के बारे में उन लोगों द्वारा भी बयानबाजी किया जा रहा है, जिनका खेती-किसानी से कोई वास्ता नहीं है।

हालांकि इनमें से कई लोग होंगे जो बड़ी जोत के मालिक होंगे, पर शायद ही उनके पांव कभी खेतों के मेड़ पर पड़े होंगे। लिहाजा वैसे तमाम लोगों को चाहिए कि वे विवादों को न न्योतें, बल्कि पहले वे इसकी बारीकियों को समझने का प्रयास करें। अगर भ्रम की स्थिति है तो इसे दूर करने की जिम्मेदारी सरकार और किसान प्रतिनिधियों की है, न कि किसी समस्या से अनजान लोगों की। लिहाजा ऐसे लोग बयानबाजी करके समस्या को और जटिल न बनाएं।

खेती किसानी एक विशिष्ट प्रकार के अनुभव हैं, जिसमें किसानों को फसल की उपज प्राप्त करने के लिए तमाम कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। गरमी की तपन, उमस, बारिश, आसमानी बिजली, जाड़े की सर्द रात तक झेलने को वे विवश होते हैं। बाढ़, सुखाड़ का अलग से सामना करना पड़ता है। तब कहीं जाकर उन्हें फसलों की उपज प्राप्त होने में कामयाबी मिलती है। और इस तरह शेष दुनिया का जीवन चल पाता है। इस संदर्भ में इस पर संवेदनशीलता के साथ विचार करना चाहिए।
’मुकेश कुमार मनन, पटना, बिहार

लोकतंत्र की ताकत
जब लोगों में बदलाव की इच्छा तीव्र और व्यापक हो जाती है और कोई दमनकारी बल इसके विपरीत खड़ा होकर अपनी पूरी क्षमता से इसे दबाना चाहता है, तो बदलाव की यही इच्छा धीरे-धीरे जन आंदोलन का स्वरूप ले लेती है। और एक बार जब यह जन आंदोलन का स्वरूप ले लेती है तो कितना भी बड़ा दमनकारी बल हो, उसे झुकना पड़ता हैं, नतमस्?तक होना पड़ता है। देश के इतिहास में जन आंदोलनों का बड़ा महत्त्व रहा है। आजादी के आंदोलन में देश के नागरिकों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और अंग्रेजों को आईना दिखाया और आखिरकार परिणाम यह हुआ कि देश को आजादी मिल गई।

जब-जब देश में सत्ता द्वारा जनता के लिए समस्या खड़ी करने वाली नीति, नियम या कानून बनाए गए, देश की जनता सड़कों पर आई। जन आंदोलन बदलाव का वह तीव्र शक्ति होती है, जिसको नजरअंदाज करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होता। यह लोगों का संवैधानिक अधिकार होता है कि वह लोकतंत्र में जन आंदोलन कर सकते हैं। जब लोकतंत्र में प्रचार माध्यमों का स्वरूप सत्ता के इर्द-गिर्द घूम रहा है, तब देश के जनता के पास अपनी आवाज सत्ता के हुक्मरानों तक पहुंचने का एक रास्ता बचता है और वह होता है आंदोलन या उसका व्यापक स्वरूप जन आंदोलन। वर्तमान हालात में किसान आंदोलन एक बहुत बड़ा जन आंदोलन बन कर उभरा है। अब वक्त है किसानों की बात सुनने की। तभी लोकतंत्र और सशक्त होगा और तब हम गर्व से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कह सकेंगे कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के निवासी हैं।
’रजनीकांत बंजारे, हेरिटेज इंस्टीट्यूट दिल्ली</p>

शरण की जटिलता
संयुक्त राष्ट्र या शरणार्थियों के लिए काम करने वाली संस्थाएं आज भले ही बांग्लादेश सरकार का रोहिंग्या शरणार्थियों के सुदूर तटीय द्वीपों में स्थानांतरित करने के निर्णय का विरोध कर रहे हैं, लेकिन बांग्लादेश सरकार की अपनी परेशानियां हैं। 2017 से ही बंगलादेश का कॉक्स बाजार के शिविरों में सात लाख से अधिक रोहिंग्या भाग कर आ गए थे। इतने वर्षों तक विश्व संगठनों ने केवल आश्वासन ही दिया। म्यांमार सरकार को अंतराष्ट्रीय अदालत से केवल फटकार लगाई गई, लेकिन इन्हें वापस नहीं लिया गया।

ग्रीस के शरणार्थी शिविर में आग लग जाता है या लगा दिया जाता है, इसकी जांच आज तक किसी ने नहीं की। कम से कम बंगलदेश सरकार ऐसी हरकत तक नहीं गई। बांग्लादेश के पास जमीन और संसाधनों की कमी है। इसलिए रोहिंग्या शरणार्थियों को उनके देश में पुनर्वास होना चाहिए। विश्व बिरादरी इसे गंभीरता से ले।
’जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर