युग बदलता है, समय बदलता है, देश और दुनिया में बदलाव होता है, सभ्यताए बदलती हैं, रुचि, खानपान, पहनावे में बदलाव होता है, मूल्य बदलते हैं, जीवन की चुनौतियां और संघर्ष के स्वरूप बदलते हैं और वैचारिक बदलाव भी होता है यानी सब कुछ बदल सकता है, लेकिन लोकजीवन के अनुभवों से रचे या गढ़े मुहावरे नहीं बदलते हैं। दौरे-रियासत हो भूमंडलीकरण या जंगे-आजादी, जड़वत रहते हैं मुहावरे। न जाने कैसे बनते हैं और ज्यों के त्यों पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं। औपनिवेशिक, उत्तर-औपनिवेशिक, आधुनिक और उत्तर-आधुनिक कालखंड में भी मुहावरे यथावत ही रहते हैं।
अब ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ यानी किसी भी काम या बात की अति को वर्जित बताने वाले मुहावरे को ही लीजिए। यह युगों से प्रचलित है। कोई इसका पालन न करे, पर दूसरों को सजग और सतर्क करने के लिए इसका प्रयोग कर हितैषी तो दिख ही सकता है। अति के दुष्परिणाम जाहिर होने पर ‘मैंने तो चेताया था’ कह कर अपने दायित्व का निर्वहन कर सकता है। बच्चे धमा-चौकड़ी कर रहे हों, सब्जी में नमक-मसाला ज्यादा हो, मीठे में शक्कर ज्यादा हो, लड़कियां जोर से हंस-बोल लें, बहुएं फैशन, पहनावा, रूप-सज्जा मनोनुकूल कर ले, मोबाइल फोन, नेट, फेसबुक, वाट्सऐप में थोड़ी रुचि दिखाए तो झट से जड़ दिया जाता है यह मुहावरा ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’।
कुछ लोग बोलने में अति करते हैं तो कुछ लोग चुप्पी में, कुछ जिम्मेदार अधिकारी कभी कार्रवाई करने में अति करते हैं तो कभी अनदेखी करने में, चाहे इन अतियों से देश का बेड़ा गर्क हो जाए, जीवन नर्क हो जाए या जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाए, उनकी बला से। स्मार्ट लोग स्मार्ट ही होते हैं। लाभ-हानि के गणित के विशेषज्ञ बोलने और चुप्पी दोनों के अति के मुद्दों और समय को जानते-समझते और दोहते हैं। कुछ अपने विचार की अभिव्यक्ति और व्यवहार की अपरिपक्वता में अति करते हैं तो कुछ ऐतिहासिक गलतियों की फेहरिस्त बढ़ाने की अति करते वक्त मुहावरा ही भूल जाते हैं।
हर समय की अपनी चुनौतियां होती हैं। राजनीति के पक्ष-विपक्ष किसी भी समस्या या मुद्दे के अति के दो छोर ही होते हैं। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया की अपनी चिंताएं और चुनौतियां हैं- कड़ी प्रतिस्पर्धा, टीआरपी की चिंता, एक्स्क्लूसिव दिखाने की चिंता, सबसे पहले दिखाने की होड़। ऐसे मे तथ्यों की सत्यता की जांच-परख कैसे संभव हो? मिर्च-मसाला न हो तो सनसनी कैसे बने? इन हालात में क्या अति की वर्जना का मुहावरा याद रह सकता है? तथ्यहीन या आधारहीन सूचनाओं के समाज और देश पर प्रभाव और उसके दुष्परिणामों का आकलन किया जा सकता है?
राजनीति, मीडिया, घर, परिवार, समाज में अति के प्रसार और व्यापकता के मद्देनजर ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ को प्रतिस्थापित कर ‘अति सर्वत्र विराजते’ के मुहावरे के चलन को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर विचार करने और नए दौर में नए मुहावरे गढ़ने का समय आ गया है! (सुरेश उपाध्याय, गीता नगर, इंदौर)
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बाजार में शिक्षा
शिक्षा समाज की एक ऐसी जरूरत है जिसकी पूर्ति केवल पैसों के बल पर नहीं की जा सकती। लेकिन पहले जहां शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन करना था, वहीं आज के परिदृश्य में यह केवल आजीविका के लिए अनिवार्य साधन हो गया है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में करीब 28.7 करोड़ लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते हैं जो विश्व की आबादी का 37 फीसद है। यह स्थिति साफतौर पर भारत की शिक्षा-व्यवस्था की पोल खोल रही है। सच यह है कि आज भारत में शिक्षा की गुणवत्ता में भी भारी कमी आ गई है, जिसका सर्वप्रमुख कारण शिक्षा का बाजारीकरण है। आज गली मुहलों में किराने की दुकान से ज्यादा शिक्षण की दुकान मिल जाती हैं। देश में न जाने कितने प्राइवेट संस्थान ऐसे हैं, जिनका सिर्फ एक मकसद है- लोगों की ‘जेब काटना’।
विभिन्न प्रकार के निजी संस्थान अपने भ्रामक विज्ञापन के जरिए लोगों को अपने जाल में फंसाते हैं। इनमे इंजीनियरिंग और मेडिकल के संस्थान प्रमुख हैं। ये संस्थान भ्रम का घटाटोप पैदा कर लोगों को लूटने का काम करते हैं। शिक्षण संस्थानों में शिक्षा के हो रहे व्यापार को रोकने के लिए सरकार को कोई ठोस कदम उठाने चाहिए और साथ ही विभिन्न प्रकार के कोर्स के लिए भिन्न-भिन्न तरह की मानक राशि तय कर देनी चाहिए, ताकि प्राइवेट संस्थानों में हो रहे लूट को कम किया जा सके और शिक्षा के बाजारीकरण को रोका जा सके। (गौरव मिश्र, भोपाल)
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सियासत के दांव
हाल के दिनों में कथित ‘देशद्रोह’ की आवाजों को दबाने के लिए सरकार सैनिकों की शहादत की गाथाएं गा रही है। लेकिन जरूरत इस बात की है कि सैनिकों के अमूल्य जीवन को बचाने के प्रयास किए जाएं। देश में सैनिकों की शहादत को न समझने वालों पर तो सरकार सख्त है, लेकिन उन्हें मारने वालों के लिए वह कोई रणनीति नहीं बना रही। हम शहीदों का सम्मान करते हैं, पर उससे भी ज्यादा सम्मान हम जीवित जवानों का करते हैं। हमें उनकी शहादत से ज्यादा उनकी मुस्तैद पहरेदारी पर गर्व होता है। सरकार उनकी शहादत पर राजनीति करने के बजाय उनकी जान लेने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाए। अब हम उनकी शहादत पर आंसू बहाने के बजाय सवाल करेंगे कि उनकी जान की रक्षा क्यों नहीं की जा रही है? वे क्यों बेमौत मारे जा रहे हैं? जिनके सामने अभी सुनहरा भविष्य पड़ा है, उन्हें शहीद क्यों बनाया जा रहा है? (विनय कुमार, नई दिल्ली)
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दबाव में बचपन
हर माता-पिता चाहते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके बच्चे स्कूल में अव्वल रहें। जब मानक एक हैं तो किसी क्लास के पचास-साठ बच्चों के रिजल्ट बराबर कैसे हो सकते हैं! प्रतिस्पर्धा के इस युग में बच्चे वैसे ही तनाव में रहते हैं ओर उस पर माता-पिता की ओर से अव्वल आने का दबाव उसे और भी ज्यादा तनावग्रस्त कर देता है। इसी दबाव और तनाव के बीच वे कोई गलत कदम उठा लेते हैं। इसलिए बच्चे अगर कमजोर भी रहते हैं तो उन्हें और अच्छा बनाने की तालीम देना चाहिए आगे बढ़ने के लिए, ताकि वे खुशी-खुशी मेहनत करके खुद ही आगे बढ़ें। (शकुंतला महेश नेनावा, इंदौर, मप्र)