जनसत्ता 30 सितंबर, 2014: विष्णु नागर ने ‘धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ’ (26 सितंबर) लेख में बहुत अहम मुद्दा उठाया है जो अक्सर चर्चा में नहीं होता। चर्चा में होने के लिए पाखंड, झूठ-फरेब,जालसाजी, बे-सिर पैर की अफवाहें, षड्यंत्र, बेईमानी, कदाचार, हत्या, बलात्कार, डकैती, राजनीतिक उठापटक, सांप्रदायिक बवाल, तरह-तरह के अंधविश्वास, तमाशेबाजी, मसखरापन, उत्तेजक बयान, भड़काऊ घटनाएं, आगजनी, दंगे, घृणा, गुस्सा, जाहिलपना आदि अन्य नकारात्मक विषय अधिक मुफीद होते जा रहे हैं। ऐसे माहौल में इस तरह का विमर्श यह भरोसा वापस लाता है कि ‘अच्छे दिनों’ के बावजूद अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ। धर्म को अपनाने का कोई चुनाव, सोच विचार या विकल्प हमारे सामने होता ही नहीं है, इसमें तो हम जन्म लेते ही उस समय कैद कर दिए जाते हैं जब कुछ भी समझने या बोलने की क्षमता ही नहीं विकसित होती।

बिना कुछ भी जाने-समझे भेड़ों की तरह हमें हांक दिया जाता है मानो हम स्वतंत्र चेतना संपन्न नागरिक न होकर गुलाम या बंधुआ हों, या हमारे कोई नागरिक अधिकार ही न हों। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस गुलामी से निजात पाने की कोई नियोजित और संगठित कोशिश या आंदोलन क्यों नहीं है? पढ़ने-लिखने और सोचने-समझने की क्षमता हासिल कर लेने के बाद भी हम क्यों और कैसे इसे न केवल स्वयं ढोते रहेंगे, बल्कि आने वाली पीढ़ियों पर भी लादते रहते हैं और न जाने कब तक लादते रहेंगे?

हमारी विडंबना देखिए कि कुछ साल पहले देश के सबसे अधिक पढ़े-लिखे प्रदेश केरल में पाठ्यपुस्तक से वह अंश प्रगतिशील कही जाने वाली सरकार के समय निकाला गया था जिसमें एक पिता स्कूल में नाम लिखाते समय अपने बच्चे की जाति और धर्म की जगह कुछ नहीं बताते हुए कहता है कि जब वह बड़ा हो जाएगा तब सोच समझ कर अपनी इच्छा से अपनी जाति और धर्म चुन लेगा। उस समय यह मुद्दा एक-दो खबरों के सिवाय बिना किसी व्यापक विमर्श के शांत हो गया। अब एक बार फिर मुंबई उच्च न्यायालय ने महत्त्वपूर्ण फैसला देते हुए समाज को मौका दिया है कि जागो और संविधान के द्वारा दिए गए अपने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक अधिकार को समझो। यह नागरिक निजता का मामला है। आखिर सरकार किसी की जाति, धर्म, नस्ल, लिंग, रंग और सोच आदि क्यों जानना चाहती है? वह इंसान को एक इंसान के रूप में स्वीकार क्यों नहीं करती? क्यों बांटना चाहती है इंसान को इन खांचों में?

जो लोग जाति और धर्म के बाड़े में अपने को नहीं छेंकना चाहते उनके लिए कहीं पंजीयन का या कोई अन्य इंतजाम हो जिससे वे बलात थोपी गई अनचाही पहचान से मुक्त हो सकें। हम कुदरत से कुछ क्यों नहीं सीख सकते हैं?

‘हमें एक घर बनाना था, ये हम क्या बना बैठे/ कहीं मंदिर बना बैठे, कहीं मस्जिद बना बैठे/ परिंदों के यहां फिरकापरस्ती क्यों नहीं होती/ कभी मंदिर पे जा बैठे कभी मस्जिद पे जा बैठे।’

हम जाति और धर्म के दमघोंटू माहौल से बाहर आकर खुली सांस ले सकें इसलिए जागना जरूरी है। अब चूंकि ‘अच्छे दिनों’ के उन्मादी करतब निर्लज्जता के साथ तांडव की मुद्रा में सामने आ रहे हैं इसलिए पूरी तरह विकृत होने के पहले क्या व्यापक विमर्श और सुसंगठित आंदोलन की जरूरत पहले से अधिक नहीं है?

श्याम बोहरे, बावड़िया कलां, भोपाल

 

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