जनसत्ता 18 सितंबर, 2014: शिक्षा का अधिकार कानून अपने लक्ष्य से काफी दूर दिखता है, तो सबसे बड़ा कारण सरकारी स्कूलों की तरफ अपेक्षित ध्यान न दिया जाना है। अव्वल तो शिक्षा के मद में जरूरत के मुताबिक धन आबंटित न होने से आधारभूत सुविधाएं नहीं जुटाई जा सकी हैं। जहां बहुत सारे स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय न हों, वहां समझा जा सकता है कि हालत क्या है। फिर, तमाम राज्यों में हजारों शिक्षकों के पद वर्षों से खाली हैं। अनुबंध आधार पर रखे जा रहे पैरा-शिक्षकों के जरिए विद्यार्थियों को पढ़ना-लिखना सिखाने की औपचारिकता पूरी की जा रही है।

ऐसे में अभिभावकों को भरोसा नहीं बन पाता कि उनके बच्चे इन स्कू लों में क्या हासिल कर करेंगे। दूसरी तरफ महंगे निजी स्कूलों का जाल फैलता गया है। सरकारों का अनुराग भी निजी स्कूलों के प्रति अधिक दिखाई देता है। सरकारी स्कूलों की कमी को कई जगह निजी स्कूलों में कमजोर आयवर्ग के लिए पच्चीस फीसद सीटें आरक्षित करके पूरी करने की कोशिश हो रही है। मगर इस तरह का आरक्षण सुसंगत शिक्षा-व्यवस्था का विकल्प नहीं हो सकता।

विचित्र है कि एक तरफ तो हम मजबूत अर्थव्यवस्था का ढिंढोरा पीटते हैं, मगर शिक्षा के मामले में कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देश भी हमें मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं। जब तक हमारी सरकारें तदर्थवादी मानसिकता से काम करती रहेंगी, शिक्षा का अधिकार कानून अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएगा।

अनिल पाराशर, इलाहाबाद

 

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