बीरेंद्र सिंह रावत की टिप्पणी ‘आस्था की मुसीबत’ (समांतर, 7 नवंबर) पढ़ा। दिल्ली महानगर में लगता है कि आस्था जी का जंजाल बन चुकी है। कभी माता की चौकी के नाम पर तो कभी भजन-कीर्तन, अजान के नाम पर। यह सब उस देश में हो रहा है, जहां कबीर, रहीम और रैदास सरीखे संत ज्ञानी बहुत सरलता से समझा गए कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। पिछले कुछ वर्षों से भजन-कीर्तन आदि में लाउडस्पीकर के उपयोग की प्रवृत्ति के निहितार्थ हमारी शिक्षा पद्धति से जुड़े हैं।
औपचारिक विद्यालयी व्यवस्था हो या अनौपचारिक शिक्षा व्यवस्था कबीर, रहीम और रैदास जैसे संतों की वाणी को शिक्षा में हर चरण में महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। पाठ्यपुस्तक से इतर कार्यकलापों में इन ज्ञानियों के दोहे किसी न किसी रूप में रहते हैं। औपचारिक विद्यालयी व्यवस्था की परिधि के भीतर आने वाले सभी बच्चों ने इन्हें पढ़ा, पढ़ रहे हैं और पढ़ेंगे भी। दीगर बात यह है कि अगर वास्तव में ये दोहे पढ़े और समझे जाते तो लाउडस्पीकर संस्कृति तो शुरू ही न होती, पर जैसे-जैसे शिक्षा और साक्षरता के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं लाउडस्पीकरों की संख्या और आवाज तेजी से बढ़ रही है।
दरअसल, संतों की वाणी हो या फिर कुछ और, सब कुछ ऐसे यांत्रिक तरीके से पढ़ाया या यों कहें कि रटवाया जाता है कि पता ही नहीं चलता कि हम पढ़ क्या रहे हैं। विषयवस्तु एक पाठ के रूप में बांधने वाली होनी चाहिए। अंत में दिए गए प्रश्नों के उत्तर कुंजी से ढूंढ कर लिखें बस हो गई पढ़ाई। अब नतीजा हमारे सामने है कि ‘का बहरा हुआ खुदाय’ या ‘याते तो चाकी भली’ की व्याख्या तो जबरदस्त तरीके से उत्तरपुस्तिका में लिख आते हैं, पर उसके मर्म को समझने की कोशिश नहीं करते, क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था में ‘समझ’ का कोई स्थान ही नहीं। अब कोई यह न कहे कि यह सब पिछड़े इलाकों में ही होता है यह तो दिल्ली की संभ्रात बस्तियों में भी जम कर होता है। मुझे लगता है कि और कोई चेते या न चेते हम अध्यापकों को समाज के प्रति अपनी जवाबदेही समझते हुए कक्षाओं में इन विषयों पर चर्चा करने की संभावना खोज लेनी चाहिए।
’शारदा कुमारी, द्वारका, नई दिल्ली
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