इनसे दुखी जनता को मजबूरन आंदोलन करना पड़ता है जो लोकतंत्र में उसका अधिकार भी है। आंदोलन सदा शांतिपूर्वक और अहिंसक होना भी बहुत जरूरी है। इसी से इसका प्रभाव बनता है। किसी भी जानमाल की हानि और नागरिक अधिकार का हनन भी तो अंतत: अपना ही होता है, यह सभी को समझने की जरूरत है।
जब आंदोलन बहुत बड़ा होने लगे तब सत्ता को भी इनका जल्द हल निकलना जरूरी है ताकि कोई अप्रिय घटना न घटे। यह उसका दायित्व भी है। सत्ता की जिद और अहंकार कभी भी लोकतंत्र में उचित नहीं होता, न हील यह लोकतंत्र के लिए लाभदायक होता है। यदि सत्ता को स्थायी और सशक्त रखना है तो उसे भी लोकतांत्रिक मूल्यों पर कायम रहते हुए पारदर्शिता से ही चलना होगा। भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए अन्ना आंदोलन और उससे पहले गरीबी और बेरोजगारी के उन्मूलन के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आंदोलन इतिहास में प्रेरक मिसाल रहे हैं।
’वेद मामूरपुर, नरेला, दिल्ली
सीएए का जिन्न
लगता है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का जिन्न चुनाव की सुगबुगाहट होते ही फिर से बाहर आ गया है। बंगाल में फिलहाल इसकी चर्चा नहीं हो रही है, जबकि असम में जहां राहुल गांधी सीएए के खिलाफ बोल रहे हैं तो भाजपा इसके समर्थन में बोल रही है। बाहर से आकर असम और बंगाल में घुसपैठ कर राशनकार्ड से लेकर वोटर आईडी तक लोग बनवा चुके हैं, जिनकी वजह से स्थानीय रहवासियों के हक मारे जा रहे है।
कई बार स्थानीय और इन बाहरी घुसपैठियों में संघर्ष भी हो चुके है। इनका विरोध सिर्फ चुनाव के समय ही क्यों होता है। हमेशा यह देखा गया है कि जो भी पार्टी सत्ता में रहती है, वह इनके वोट कबाड़ने के लिए चुप बैठी रहती है। विरोध या समर्थन सिर्फ चुनावी मौसम में ही देखने को मिलता है।
’स्वप्निल शर्मा, मनावर, धार
खतरे की घंटी
जुलाई 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के चौदह निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। कारण गरीबों तक बैंकों की पहुंच बनाने, शोषण से कर्मचारियों को निजात दिलाने, निजीकरण की बढ़ती बुराइयों व ट्रेड यूनियनों की मांग पर सरकार ने यह कदम उठाया गया था। चरम पर हर व्यवस्था में अनेक बुराइयां उत्पन्न हो जाती हैं। आज सरकार को भी राष्ट्रीयकरण की बुराइयां नजर आने लगी हैं।
शायद इसीलिए वह राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण की योजना बना रही है, जिसमें पहले वह छोटे बैंकों को चुनेगी। प्रयोग के तौर पर बैंक आॅफ महाराष्ट्र और इंडियन ओवरसीज बैंक पर उसकी निगाह है। बाद में बैंक आॅफ इंडिया और सेंट्रल बैंक आॅफ इंडिया की बारी आ सकती है। सरकार यह कदम बैंकों के बढ़ते एनपीए और डूबते कर्ज के कारण उठा रही है।
लेकिन निजीकरण के कारण हजारों कर्मचारियों के बेरोजगार होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। शिक्षा, स्वास्थ्य संस्थाएं, रेलवे, बैंक आदि ऐसे उपक्रम हैं जो आम लोगों के हितों से जुड़े हैं। इनके निजीकरण से ये सेवाएं गरीब और माध्यम वर्ग की पहुंच से दूर होने का खतरा बढ़ जाएगा। यदि निजीकरण आम लोगों के हितों की बजाय उसके लिए महंगा और मुसीबत भरा बन जाए तो यह ठीक नहीं। बेहतर तो यह होगा कि सरकार घाटे में जा रहे सरकारी उपक्रमों की व्यवस्था को सुधारे तो उसे किसी भी उपक्रम को निजी हाथों में सौपने की नौबत ही न आए।
’शकुंतला महेश नेनावा, इंदौर