महिला को पति और उसके रिश्तेदारों की कू्ररता से बचाने के लिए लाए गए दहेज निषेध अधिनियम के दुरुपयोग पर उच्चतम न्यायालय ने एक बार फिर चिंता जताई है। बीते सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा कि हाल के दिनों में देश में वैवाहिक मुकदमेबाजी काफी बढ़ गई है। विवाह संस्था को लेकर अब पहले से अधिक असंतोष और टकराव है। परिणाम स्वरूप व्यक्तिगत झगड़े के चलते पति और उसके रिश्तेदारों के विरुद्ध आईपीसी की धारा 498 (दहेज प्रताड़ना में दंड) के प्रावधानों का हथियार की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

बीते दशकों में देश की विभिन्न अदालतों ने 498 ए के दुरुपयोग को लेकर तीखी टिप्पणियां की हैं। एक मामले में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा था कि असंतुष्ट पत्नियों द्वारा 498 ए के प्रावधानों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना आम बात हो गई है। पति को परेशान करने का सबसे आसान तरीका यह है कि उसके रिश्तेदारों को इस प्रावधान के तहत फंसाया जाए। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि पति के शय्याग्रस्त दादा-दादी हों या दशकों से विदेश में रहने वाले रिश्तेदार।

इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों में अमूमन बिना किसी सबूत के पुरुषों को दोषी मान लिया जाता है। इस धारणा को निरंतर प्रत्यय स्थापित करने का प्रयास भी किया गया है कि महिलाएं क्रोध और वैमनस्य के भाव से मुक्त हैं। 498 ए कानून के वास्तविक पालना की सबसे बड़ी चुनौती वे दांवपेच हैं, जो स्वार्थ सिद्धि के इर्द-गिर्द बुने जाते हैं।

दहेज और स्त्रीधन/ उपहार के मध्य महीन रेखा कब मिट जाती है, इसे सुलझाना सहज नहीं है। वैवाहिक जीवन में जब तक सौहार्द है, तब तक लड़की को दिया धन उपहार होता है, पर पारिवारिक कलह होते ही यकायक उपहार दहेज की संज्ञा धारण कर लेता है। इसलिए जरूरी हो जाता है कि बदलते सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप दशकों पुराने निर्मित कानूनों में बदलाव हो, अन्यथा समाज में बिखराव बढ़ेगा और परिवार संस्था भी कमजोर होगी।

बेवजह तूल

कुछ दिनों पहले कर्नाटक से उठा मुसलिम छात्राओं के हिजाब पहनने के विवाद का असर अब देश के दूसरे कई हिस्सों में भी दिखाई दे रहा है। कालेज प्रशासन और विशेष विचारधारा से प्रेरित लोग अनुशासन के नाम पर वर्दी का तर्क देते हैं। पर समस्या यह नहीं है। भगवा रंग के गमछे पहने, जय श्रीराम के नारे लगाते हुए हिंदू युवाओं द्वारा की गई हुल्लड़बाजी से तस्वीर साफ हो जाती है।

एक विविधताओं वाले देश में न किसी स्कूल-कालेज के प्रशासन से, न शिक्षक वर्ग से, और न ही लोगों की किसी भीड़ से ऐसे विवाद खड़े करने की अपेक्षा की जानी चाहिए। कक्षा में एक रंग का दुपट्टा, एक रंग की पगड़ी और एक रंग का हिजाब पहने विद्यार्थियों के कुछ समूह एक साथ शिक्षा क्यों नहीं प्राप्त कर सकते? इससे कौन-सा अनुशासन भंग होता है! यह भारत है, जिसने संपूर्ण विश्व में एक उदार और धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में अपनी पहचान बनाई है। हम कहां ले जा रहे हैं अपने देश को! उन तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों से भी यह सवाल करना बनता है, जो इस हिजाब वाले प्रसंग को इस्लामीकरण की प्रक्रिया का आयाम बता कर विवाद को तूल देने में लगे हैं।

  • शोभना विज, पटियाला