संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र की रक्षा और अनुपालन में जिन बिंदुओं को कसौटी पर खरे उतरने के मांगलिक और लोक कल्याणकारी सपने देखते हुए उसे संविधान में निरूपित किया था, आज उसके अधिकांश अंश जीवन आचार संहिताओं से प्रजातंत्र के पारखी प्रहरी मुंह मोड़ते हुए कुछ ऐसे दृष्टांत गढ़ रहे हैं, जो कतई लोक हितकारी नहीं है। इस मंशा के पीछे वोट बैंक की स्वार्थपरक राजनीतिक व्यूह रचना ही है, जिसके मायने यही हैं कि ‘समरथ को नहीं दोष गोसार्इं’।
वर्ष 2012 में बिहार सरकार ने जेल हस्तक में प्रावधान समाहित किया था कि आजीवन कारावास भोग रहे आतंकवादी, बलात्कारी और सरकारी कर्मियों के हत्यारे कैदियों को बीस वर्ष की सजा पूरी करनी ही होगी। सामान्य जुर्म में सजायाफ्ता उम्र कैदियों के शालीन व्यवहार और आचरण को देखते हुए उन्हें बीस वर्ष के पूर्व भी राज्य सरकार ने रिहा करने की शक्ति को यथावत रखा था।
हाल के संशोधन से वैसे कैदी जो सरकारी कर्मियों की हत्या के मामले में उम्र कैद की सजा काट रहे हैं, उन्हें अब उनके अच्छे आचरण के कारण चौदह साल की सजा पूरी होने पर ही कारागार से आजाद कर दिया जाएगा। यह बदलाव किसी व्यक्ति विशेष को राहत देने के उद्देश्य से ही किया गया है, क्योंकि आसन्न लोकसभा चुनाव में ऐसा उपहार देने से उस वर्ग की सहानुभूति मिल सकेगी और वोट की प्राप्ति में सत्ताधारी दल को सुविधा होगी।
बुनियादी सवाल यह है कि हर जीवन अमूल्य है, चाहे उसकी जान आतंकवादी ने ली हो या किसी भी श्रेणी के अपराधी ने। लेकिन हत्यारों को अदालत से प्राप्त सजा का वर्गीकरण और उसे राजनीतिक कारणों से राहत देना संविधान में प्रदत्त समानता के सिद्धांत का घोर उल्लंघन है। मानवीय मूल्यों और उसकी संवेदनाओं को अगर वोट की विडंबना का शिकार बनाया जाएगा या खिलवाड़ होगा तो आखिर विधि के शासन का औचित्य क्या है? शराबबंदी मामले में लाखों कैदी में अधिकतर वैसे हैं जो अत्यंत निर्धन रेखा के अधीन हैं।
जेल में वे इसलिए हैं क्योंकि उनके पास कोर्ट-कचहरी में पैरवी के पैसे नहीं हैं। साथ ही बिहार के प्रत्येक जेलों में वर्षों से हजारों वृद्ध कैदी भी हैं, जो अपनी बीमारियों के कारण दर्दनाक जीवन जी रहे हैं। जेलों में बंद तीसरी श्रेणी के वैसे आरोपित भी कैदी हैं जो ‘तारीख पर तारीख’ के शिकार हैं। उनमें से कुछ कैदी वैसे भी हैं जो जुर्म में निर्धारित सजा अवधि से अधिक समय जेल में गुजार चुके हैं।
दुर्भाग्य है कि ऐसे लोगों की मानवाधिकार की रक्षा में सरकार कृपण बनी हुई है, क्योंकि इनसे किसी को राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला है। वोट के लिए सामाजिक ताने-बाने को असीमित क्षति पहुंचाई गई है और जब इसमें शासक वर्ग अत्यंत कुटिलता से अपनी भूमिका निभा रहा हो तो सवाल लाजिमी है कि लोकतंत्र का लालित्य कब तक जीवित रहेगा। शायद प्रजातंत्र के भाग्य विधाताओं के चाल, चरित्र और चेहरे के गहरे अध्ययन के बाद ही राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था- ‘राजा तुम्हारे अस्तबल के घोड़े मोटे हैं/ प्रजा भूखी और नंगी है/ घोड़ों को कोई अभाव नहीं/ लेकिन,लोगों को हर तरह की तंगी है।’
अशोक कुमार, पटना।
वादे के बरक्स
कई सालों से जो भी सरकार दिल्ली की गद्दी पर बैठती है, वह दावा करती है कि हमारे कार्यकाल में हम यमुना नदी को बिल्कुल साफ कर उसे आचमन करने के योग्य बना देंगे। लेकिन उनका वह दावा कभी भी पूरा नहीं होता है और लगातार यमुना नदी और इसके सभी घाट गंदगी से अटे पड़े रहते हैं। वर्तमान ‘आप’ की सरकार और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल जो दूसरे शासनकाल में मुख्यमंत्री हैं, इनका भी सरकार में आते ही यह दावा था कि हम दिल्ली की यमुना नदी को शीघ्र ही पाक साफ कर इसका पानी पीने और आचमन करने लायक कर देंगे।
आज उनकी भी दूसरी पारी चल रही है, लेकिन यमुना नदी का पानी बदस्तूर गंदगी युक्त विषैला और दूषित बना हुआ है। और भी पुरानी बातें कहे तो कांग्रेस या भाजपा की सरकारों ने भी यमुना को पाक साफ करने की बात कही थी। लेकिन यमुना के तीर जस के तस बने हुए हैं और उसका जल आज तक नहाने लायक तक नहीं बनाया जा सका है।
अब केजरीवाल सरकार की वादाखिलाफी से नाराज दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने काफी नाराजगी व्यक्त की है। इस बार उन्होंने यमुना नदी की साफ-सफाई के लिए गठित उच्च स्तरीय समिति की बैठक लेते हुए शीघ्र इसकी सफाई करने की बात कही है। इसके लिए उन्होंने 30 जून तक का समय भी दिया है। अब यह देखने की बात होगी कि आम आदमी पार्टी की सरकार इस पर कितना गौर करती है। यमुना नदी को गंगा के बाद पवित्रता के मामले में देश में दूसरा स्थान दिया जाता है। कहा भी है गंगा, यमुना, सरस्वती हमारे देश की महान संस्कृति का मूल आधार भी है। सवाल है कि हम इस आधार को कितना बचा पा रहे हैं।
मनमोहन राजावत राज, शाजापुर, मप्र।
हाशिये पर मजदूर
हर साल मजदूर दिवस आकर निकल जाता है, लेकिन मजदूरों की मुश्किल ज्यों की त्यों कायम रहती है। प्रत्येक श्रमिक पहले एक इंसान है और इस प्रकार उनकी स्थिति या नौकरी की जिम्मेदारियों के बावजूद उन्हें महत्त्व दिया जाना जरूरी है और उन्हें पूरा महत्त्व दिया जाना चाहिए। भारत में मजदूरों की स्थिति बहुत दयनीय है। अव्वल तो आज हालत यह हो गई कि मजदूरों की तादाद के मुकाबले काम बहुत कम हो गया है, जिससे बहुत सारे मजदूरों को रोजगार मिलना मुश्किल हो गया है।
इसी वजह से उनकी मजदूरी में भी काम कराने वाले मनमानी करते हैं और कम से कम मेहनताने में काम कराना चाहते हैं। ज्यादातर श्रमिकों को उनका उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता है, उनके साथ भेदभाव किया जाता है। उनके लिए सरकारी तौर पर जो नाममात्र के सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम हैं, उसका फायदा शायद ही सही लोगों को मिल पाता है। अक्सर समाज में उनको उपेक्षित दृष्टि से देखा जाता है। यह हमारी मानवीयता पर ही एक सवाल की तरह है।
योगेंद्र गौतम, उन्नाव।