सच के साथ होना, असभ्य होना नहीं है। संस्कृति की मुखालफत में झंडा बुलंद करना नहीं है। लगता है, तर्क की कसौटी आज हमारे जनतंत्र में बहुत सारे लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखती है। शायद इसीलिए आपराधिक प्रवृत्ति वाले दागी व्यक्ति जनप्रतिनिधि होने या बनने का दावा करते हैं। रिकार्ड बताते हैं कि 1991 में संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि के बत्तीस सदस्य थे, तो 2004 में यह संख्या बढ़ कर एक सौ छत्तीस हो गई। जबकि हालिया लोकसभा चुनाव में ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि के जीते हुए सांसदों की संख्या करीब एक सौ पचासी है। लेकिन ये साक्ष्य सुशासन के दावेदारों और कानून के जानकारों को नहीं दिखाई देते हैं। उन्हें सिर्फ वे लोग ही नजर आते हैं जो आम आदमी के हक-हकूक के लिए नौजवानों को चेतस बनने का आह्वान कर रहे हैं; पाठ्यक्रम की अपनी सीमित दुनिया में रमे रहने को ही जिंदगी मानने की जगह जो दूसरों के लिए भी कुछ समय निकालने का दरख्वास्त कर रहे हैं; जो यह चाहते हैं कि सामाजिक तत्परता और लगाव-वृत्ति युवाओं में पैदा हो; हमारी नई पौध देश में अपनी भूमिका को देशवासियों के हालात के परिप्रेक्ष्य में समझने-देखने का आदी हो; अपने अंदर तत्संबंधी संस्कार, संज्ञान और बोध ग्रहण करे।

मैगसेसे अवार्ड प्राप्त समाजसेवी और प्राध्यापक डॉ संदीप पांडेय को बीएचयू से जिस तरह शिक्षण-कार्य की जवाबदेही से मुतलवी किया गया, वह दुखद है। हालांकि इस तरह निशाना बनाए गए वे पहले व्यक्ति नहीं हैं। मणिपुर की इरोम शर्मिला चानू को जब सोलहवीं लोकसभा चुनाव में नागरिक मताधिकार से वंचित किया गया, तो कहीं कोई सवाल नहीं उठा बुद्धिविधानियों के मुंह नहीं खुले। दिल्ली केंद्रित राजनीति में अनशन, आंदोलन, जुलूस, बैनर, पोस्टर, चर्चा, बहस नहीं हुई गौरतलब है कि मणिपुर में सशस्त्र बल अधिनियम, 1958 के खिलाफ तेरह वर्षों से अनशन कर रही इरोम को कानून के मुताबिक मतदान करने की अनुमति नहीं प्रदान की गई। हवाला दिया गया जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 62(5) के तहत की कि जेल में कैद व्यक्ति मतदान नहीं कर सकता। जिस देश में शांतिपूर्ण अनशन या विरोध दर्ज कराने की गुंजाइश कम होती जा रही हो, और ऐसा करने वालों के लिए कैद ही नियति हो, उस देश में अभिव्यक्ति के अधिकार के हालात भी मुश्किल होंगे। ऐसी घटनाएं ऊपर से देखने में मामूली लगती हों, लेकिन इसकी प्रतिक्रिया आमतौर पर सामान्य नहीं, अप्रत्याशित हुआ करती है। इसलिए भारत की अव्वल अकादमियों को समय रहते चेतने की जरूरत है। वह शिक्षा-तंत्र को औद्योगिक घरानों का दावतखाना बनने देने की जगह सामाजिक अंतर्विरोध को पाटने में योगदान दें। (राजीव रंजन, बीएचयू, वाराणसी)
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विकास का परदा
वैश्वीकरण के इस दौर में विकास का जो चेहरा गरीब जनता को दिखाया जा रहा है, वह एक मृग-मरीचिका के समान है। हमारे नीति-निर्धारकों की आर्थिक नीतियों में साधारण लोगों के लिए जगह नहीं है। देश की लगभग उनतीस करोड़ जनता हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी भूखे मरने को मजबूर है। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला थमने को ही नहीं आ रहा है। स्वास्थ्य चिकित्सा, बेरोजगारी और गरीबी उन्मूलन आदि की मूल समस्याएं पृष्ठभूमि में जा चुकी हैं। विकास का पहिया सिर्फ महानगरों की शोभा बढ़ा रहा है। हमारे रहनुमाओं को विकास केवल निजीकरण में ही दिख रहा है।

एक ओर मॉल संस्कृति देशभर में पैर फैला रही है तो दूसरी ओर होरी-हल्कू अपनी जमीनें खो रहे हैं। महंगाई सुरसा की तरह बढ़ती ही जा रही है। मीडिया क्रिकेट, फैशन और फिल्मी सितारों की परिधि में सिमट कर रह गया है। हमारे नेता अपने वातानुकूलित कमरों में बैठ कर आगामी चुनावों के बारे में चिंतामग्न हैं। विडंबना यह है कि बुंदेलखंड और विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं कहीं कोई खबर नहीं आती है, लेकिन क्रिकेट मैच और फिल्मी सितारों की निरर्थक बातें सभी टीवी चैनलों के लिए ‘ब्रेकिंग न्यूज’ होती हैं। अभागे गरीब-गुरबों के पास कोई असरदार आवाज भी नहीं है। (रमेश शर्मा, केशव पुरम, दिल्ली)
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सुरक्षा की दीवार
उत्तर कोरिया ने दुनिया के कड़े विरोध के बावजूद अपने हाइड्रोजन बम का सफल परीक्षण किया और विश्व को अपनी हिम्मत दिखाई। शायद इस परीक्षण के जरिए उत्तर कोरिया विश्व को यह संदेश भी देना चाहता हो कि कोई हमें हलके में लेने की भूल नहीं करें। इस घटना से पूर्व एशिया का संतुलन बिगड़ जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। दरअसल, अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन इन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य राष्ट्रों के पास सालों से मारक परिमाणु हथियार हैं। भारत, पाकिस्तान और इजराइल के पास भी परिमाणु हथियार है। अमेरिका जैसी दुनिया की महाशक्ति और अन्य चार बड़े देश अपने मारक हथियारों को समय-समय पर आधुनिक बना कर अपनी शस्त्र सामग्री बरकरार रखते या उसे बढ़ाते आए हैं। ठीक उसी तरह विश्व के हर एक देश को अपनी सुरक्षा के लिए तैयार रहने का पूरा हक है। इस लिहाज से देखें तो जब उत्तर कोरिया ने अपनी सुरक्षा के लिए हाइड्रोजन बम का परीक्षण करने का कदम उठाया तो इस पर बवाल की जरूरत नहीं है!
(अनिल रा. तोरणे, तलेगांव, पुणे)
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सरकार के सरोकार
पिछले दिनों एक खबर में मानवीय मूल्यों की अद्भुत मिसाल देखने को मिली। जापान के एक छोटे-से कस्बे तक एक स्पेशल रेलगाड़ी चलती है। यह रेल स्पेशल इस मायने में है कि इस कस्बे से वह एकमात्र यात्री एक छोटी बच्ची को लेने आती है, जो इसमें बैठ कर अपने स्कूल जाती है। यह खबर अभिभूत कर देने वाली है कि किस तरह एक राष्ट्र अपने नागरिकों के प्रति समर्पित है। सामाजिक सेवाओं से जुड़े कई विभाग भारत में भी हैं और कई योजनाएं यहां भी चलाई जा रही हैं। लेकिन जिस बात की कमी हमारे यहां रह जाती है, वह है राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण और निष्ठा की कमी। अगर हरेक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी केवल अपने और अपने परिवार के प्रति नहीं मान कर संपूर्ण राष्ट्र के प्रति माने तो निश्चय ही भारत की तस्वीर बदल जाएगी। (जितेंद्र सिंह राठौड़, गिलांकोर)