बाजार में उपलब्ध तमाम भौतिक संसाधन आम नागरिकों के मन को लुभाने में कोई कसर शेष नहीं रखते। संचार माध्यमों से किए जा रहे विज्ञापन के दौर में लगभग हर विज्ञापित संसाधन आम नागरिकों की जरूरत बनते जा रहे हैं। यहां तक कि रोजमर्रा के उपयोग की छोटी-छोटी वस्तुएं भी सितारों के विज्ञापन के चलते नागरिकों के लिए अनिवार्य बनती जा रही है।
विभिन्न उत्पादकों द्वारा आम नागरिकों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करके बाजार में मांग बढ़ाई जा रही है। पूर्व में आवश्यकता आविष्कार की जननी होती थी, लेकिन अब समय ऐसा आ गया है कि आविष्कार आवश्यकताएं उत्पन्न करता जा रहा है। अर्थशास्त्र की दृष्टि से मुद्रा की तरलता संतुलित आर्थिक विकास की दृष्टि से आवश्यक समझी जाती है। मुद्रा की तरलता को फिजूलखर्ची भी नए आयाम देती है। कुछ अंशों तक इसे सकारात्मक स्वरूप में भी लिया जाना चाहिए।
प्रचलित परंपराएं भी वर्तमान परिवेश में नए स्वरूप में विस्तार पा रही है। पारिवारिक तौर पर किए जाने वाले काज-क्रियावर भी प्रतिस्पर्धात्मक रूप से किए जाने लगे हैं। मान-सम्मान और स्वाभिमान को बनाए रखने या बढ़ाने के लिए की जा रही फिजूलखर्ची आर्थिक समृद्धि की सूचक सिद्ध हो रही है। देखते-देखते बाजार का स्वरूप व्यापक होता जा रहा है।
उपभोक्ता संस्कृति के चलते नागरिकों की आवश्यकताओं में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि होती जा रही है। कड़ी प्रतिस्पर्धा के बावजूद अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग उत्पाद की लोकप्रियता स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है। आज उत्पादक के लिए बाजार की अनुपलब्धता का कोई प्रश्न शेष रहा ही नहीं है। बढ़-चढ़कर की जा रही विज्ञापित सामग्री के खरीदारों की कहीं कोई कमी नहीं है। मांग उत्पन्न करना अब कहीं अधिक आसान हो गया है।
कल तक हमें जिस वस्तु की आवश्यकता ही नहीं थी, वही वस्तु हमारे लिए आवश्यक होती जा रही है। यह सिलसिला किसी निश्चित मुकाम पर आकर ठहरेगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। विज्ञापनों के माध्यम से एक बड़े वर्ग को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करते हुए बाजार में मांग उत्पन्न करना अब सहज-सरल हो गया है।
विज्ञापित वस्तुओं के बारे में चाहे जितना अतिश्योक्तिपूर्ण बखान किया जाए, नागरिकों के एक बड़े वर्ग द्वारा इस पर आपत्ति भी नहीं ली जाती। हर उत्पाद को सहर्ष स्वीकार करने की मनोवृति को विकसित करने में विज्ञापन का बहुत बड़ा योगदान है। धनाढ्य वर्ग अपनी क्रय शक्ति के बलबूते पर उन चीजों की ओर सहज ही आकर्षित हो जाता है, जिसे विज्ञापन में दर्शाया जाता है। यहीं से शुरू होता है फिजूलखर्ची का कभी न रुकने वाला सिलसिला। यह सिलसिला निरंतर विस्तार पाता जा रहा है।
कहा जा सकता है कि बाजार में वस्तुओं की उपलब्धता विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ताओं के लिए अनिवार्य अथवा आरामदायक आवश्यकताओं में जोड़ी जा सकती है। आज बाजार में भौतिक संसाधनों की भरमार है, अनिवार्य आवश्यकताओं को छोड़कर आरामदायक और विलासितापूर्ण आवश्यकताओं को विज्ञापन के माध्यम से नया बाजार दिया जा रहा है।
मांग और पूर्ति का अब तक प्रचलित सिद्धांत यातायात संसाधनों तथा प्रचार माध्यमों के चलते मनोवांछित रूप से परिवर्तित भी किया जाने लगा है। वर्तमान परिवेश में अर्थोपार्जन करने के लिए उचित या अनुचित माध्यम पर विचार नहीं किया जाता। येन-केन-प्रकारेण धन प्राप्ति ही जन सामान्य की सामान्य समझ बनती जा रही है। इसके चलते अनैतिकता को बढ़ावा मिल रहा है और भ्रष्टाचार को भी गति मिल रही है।
राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास मप्र।
नए दौर में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया अमेरिका यात्रा पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी रहीं। यह दौरा दोनों देशों के संबंधों में नए आयाम गढ़ने वाला रहा। एक समय भारत के लिए रूस सबसे महत्त्वपूर्ण साथी के रूप में सामने आया था। इस बात में संदेह भी नहीं कि रूस ने कुछ अहम मौकों पर भारत का साथ दिया था। अब परिस्थितियां बदल रही हैं। नए परिदृश्य में अमेरिका ने स्वयं को सबसे अग्रणी राष्ट्र के रूप में स्थापित किया है। साथ ही भारत के साथ संबंधों को गंभीरता से स्वीकार भी रहा है। ऐसे में भारत के लिए भी दोस्ती के इस स्वरूप को स्वीकारना आवश्यक हो गया है।
आज अमेरिका ज्यादा प्रासंगिक एवं सहयोगी के रूप में सामने आ रहा है। सीमा पर चीन की हरकतों और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति स्थापित करने के मामले में भी अमेरिका अपेक्षाकृत अधिक गंभीर है। सामरिक पहलू के अतिरिक्त तकनीक और विकास की दृष्टि से भी यह दोस्ती महत्त्वपूर्ण है। यह सर्वविदित तथ्य है कि अमेरिका ने तकनीक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास किया है।
भारत भविष्य की विकास की जिस गाथा को लिखना चाहता है, उसमें प्रौद्योगिकी की बड़ी भूमिका होगी। अमेरिका तकनीक साझा करने का इच्छुक भी है। भारत और अमेरिका के बीच रक्षा, तकनीक और ऊर्जा जैसे क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण समझौते हुए हैं। ये समझौते नए दौर में दोनों देशों के मजबूत संबंधों की इबारत लिखने वाले होंगे।
सदन जी, पटना।
लोकतंत्र के लिए
अगर अमेरिकी मीडिया और वहां के कुछ सांसद भारत पर अधिनायकवादी हुकूमत चलाने और मतभिन्नता को अस्वीकार करने की संस्कृति विकसित करने का आरोप लगाते हैं तो क्या वे कोई गैरकानूनी और अलोकतांत्रिक काम कर रहे हैं? नौ साल में पहली बार हमारे प्रधानमंत्री सही मायने में संवाददाता सम्मेलन का सामना कर रहे थे। उस पर भी भारत में कुछ लोगों ने एक विचित्र मोर्चा खोल दिया।
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारत को अल्पसंख्यकों के बारे में नसीहत देना भी महंगा पड़ गया। अगर दुनिया भर के स्वतंत्र मिजाज के कुछ लोग किसी सरकार पर बहुसंख्यकवाद की राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं तो एक लोकतांत्रिक देश में इस पर गौर करने की जरूरत है। असम के मुख्यमंत्री जब ये कहते हैं की भारत में भी अनेक हुसैन ओबामा मौजूद हैं तो इसका अर्थ क्या निकलता है? लोकतंत्र में सरकार की नीति का आलोचना करना सरकार को एक तरह से सलाह देना होता है कि वह आम जनता के हितों का ध्यान रखे।
जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर।