कोरोना संकट के चलते लगातार डेढ़ साल तक बेरोजगारी की मार झेलते गरीब और मध्यम वर्ग की एक तरह से कमर टूट गई है। शासकीय नौकरियों को छोड़ कर बाकी सभी क्षेत्रों में लोग बड़ी संख्या में बेरोजगार हुए हैं। उस पर विदेशों से आए हुए भारतीय नौकरी ढूंढ़ रहे हैं। महिलाओं की हालत और भी बदतर हुई है। खासतौर पर गरीब परिवारों के लिए दो जून की रोटी का बंदोबस्त करना भी एक बड़ी चुनौती हो गई है। अन्य सुख-सुविधा और आराम के बारे में तो वे सोच भी नहीं सकते।
सरकार करोड़ों अरबों की योजनाएं परोस रही है। मगर आमजन के मुंह में एक निवाला भी नहीं आ रहा। उस पर तीसरी लहर का आसन्न खतरा सभी को मानसिक रूप से भयग्रस्त किए हुए है। एक सर्वेक्षण के अनुसार पूर्ण बंदी के बाद से लोग बड़ी संख्या में मनोचिकित्सकों के पास पहुंच रहे हैं तो बहुत सारे लोग अवसाद के शिकार हो रहे हैं, मगर किसी को बता नहीं रहे। बाजार मंदी के चपेट में है। ऐसे में पेट्रोलियम और खाद्य पदार्थों के आसमान छूते भावों ने आग में घी का काम किया है। श्रीलंका जैसे कुछ देशों में तो खाद्यान्न संकट भी उत्पन्न हो गया है। इसलिए सरकार को सरकारी नियंत्रण और व्यवस्था के तहत पर्याप्त भंडारण करके रखना चाहिए, ताकि संकट के समय का सामना किया जा सके।
’विशाखा, बदरपुर, दिल्ली</p>
चुनौती के सामने
‘बढ़ता आतंक’ (संपादकीय, 14 सितंबर) पढ़ा। कश्मीर में सुरक्षाकर्मियों पर बढ़ते हमले चिंताजनक हैं। अनुच्छेद 370 के खात्मे के कुछ समय बाद तक ठंडे पड़ रहे आतंकवाद के बाद यह उम्मीद जगने लगी थी कि शायद घाटी में अब अमन-चैन लौट आएगा, मगर पुलिसकर्मियों पर हमले और उनकी हत्या में आतंकवाद का नया चेहरा सामने आया है जो हमारी चुनौती बढ़ाने वाला है। सुरक्षाकर्मी नागरिकों के जान-माल की रक्षा में डटे हैं, मगर उन पर घात लगाकर हो रहे हमले से हमें एक बार फिर नई व्यवस्था के लिए सोचना पड़ेगा। ताजा हालात के मद्देनजर बड़े फैसले की जरूरत है।
’अमृतलाल मारू ‘रवि’, धार, मप्र