कांग्रेस की श्रम विरोधी और कारपोरेट परस्त नीतियों से त्रस्त जनता को मोदी सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ और ‘कौशल विकास’ के नारे से बहुत उम्मीद जगी थी। पर आशा की यह किरण धुंधली पड़ने लगी है। उद्योगों के निराशाजनक व्यवहार को साबित करते हुए देश की दूसरे नंबर की ट्रैक्टर बनाने वाली कंपनी ने अपने संयंत्रों से पांच प्रतिशत कर्मचारियों की छंटनी कर दी है।

वहीं दूसरी ओर दिल्ली-आधारित आटोमोटिव कलपुर्जे बनाने और 16990 करोड़ का कुल कारोबार करने वाली एक नामी कंपनी अपने प्रमुख संयत्रों से बीस प्रतिशत स्थायी और दस प्रतिशत अस्थायी कर्मचारियों को बाहर करने का लक्ष्य पूरा करने के करीब है। कंपनी के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के हरियाणा, राजस्थान स्थित बहुत से संयंत्रों से अभियंताओं, प्रबंधकों और अन्य कर्मचारियों को सड़क पर खड़ा कर दिया गया है।

इसी कंपनी में सात वर्ष से कार्यरत और अपने काम में पूणतय: दक्ष हरियाणा के एक इंजीनियर, जिन्हें एक दिन दिल्ली कार्यालय बुलाकर त्यागपत्र लिया गया, कहते हैं कि सरकार अकुशल नौजवानों को कुशलता का प्रशिक्षण देने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करके रोजगार दिलाने की बात करती है। पर जो इंजीनियर, कामगार पहले से ही अपने खर्चे पर डिग्री-डिप्लोमा लेकर कुशलता प्राप्त कर देश के विकास में लगे हुए हैं, अगर उन्हें बाहर किया जा रहा है तो सरकार के नए युवकों को कुशल बनाने के ‘कौशल विकास’ के नारे पर कौन विश्वास करेगा?

दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री लेकर पंद्रह वर्षों से इसी कंपनी में कार्यरत एक अन्य शख्स के मुताबिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के चलते विकास और तकनीक के गुब्बारे ने मानवीय मूल्यों को धराशायी कर दिया। कभी अच्छी कंपनियों में कार्यरत कर्मचारियों के दस या पंद्रह साल का कार्यकाल पूरा होने पर चेयरमैन अपने हाथों से ‘लंबी अवधि पुरस्कार’ देता था। आज मुझे पंद्रह वर्षों की सेवा के बदले पहले से ही लिखित त्यागपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए पंद्रह मिनट का भी समय नहीं दिया गया। क्या भारतीय संस्कृति का दम भरने वाली सरकार की छत्रछाया में कारपोरेट को ‘यूज एंड थ्रो’ (इस्तेमाल करो और फेंको) जैसी पश्चिमी अवधारणा अपनाने की खुली छूट मिल चुकी है?

क्या पिछले बीस वर्षों में महज कुछ करोड़ से लगभग 16990 करोड़ के कारोबार पर पहुंची इस कंपनी को मोदी सरकार की असहयोग की नीतियों के चलते ऐसा कदम उठाना पड़ा या कांग्रेस के शासन में ऐसी कंपनियां गलत ढंग से विकसित हुर्इं अथवा मौजूदा सरकार के दूरगामी और खराब कंपनियों पर लगाम कसने के परिणामस्वरूप यह सब हुआ? यह बहस का विषय हो सकता है। एक प्रमुख आर्थिक अखबार के मार्च 2015 के एक अंक के अनुसार इस कंपनी की जर्मनी की एक कंपनी को 175 मिलियन यूरो (लगभग 1200 करोड़ रुपए) में खरीदने की योजना है।

क्या कंपनी भारतीय संयंत्रों को आंशिक रूप में ही चला कर विदेश में पैसा लगा रही है? अर्थात कंपनी ‘मेक इन इंडिया’ की अपेक्षा ‘मेक इन जर्मनी’ के नारे में ज्यादा विश्वास करती है!

यह कटु सत्य है कि वर्तमान व्यवस्था और अधिकांश मीडिया कारपोरेट और शोषक वर्ग के पक्ष में होने के कारण ऐसी घटनाएं आमजन तक नहीं पहुंचतीं। पर अगर यही क्रम छुपते-छुपाते भी चलता तो इसका परिणाम अंतत: उद्योगपतियों, मानव संसाधन, सत्ता और देश किसी के भी हित में नहीं होगा।

संजीव सिह ठाकुर, रेवाड़ी

 

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