‘टूटते पुल’ (संपादकीय, 1 नवंबर) में उठाए गए सवालों से असहमत होना किसी भी संवेदनशील नागरिक के लिए कठिन बात होगी। बल्कि इस तरह के अनेक निरुत्तरित सवाल देशभर की जनता के दिल में अभी भी बरकरार है। समस्या यही है कि इन सवालों के उत्तर की अपेक्षा जिन राजनेताओं से है, वे सब अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में व्यस्त हैं और आम जनता के समस्याओं के संबंध मे पूरी तरह से संवेदनहीन हैं।
गुजरात के मोरबी में हुई दुखद घटना इस बात को फिर एक बार रेखांकित कर रही है। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाले हमारे देश में सामान्य जनता के जीवन की कीमत क्या है। इसका उत्तर मोरबी के घटना से या फिर पिछले कुछ समय में देश के विभिन्न हिस्सों में घटित हुई ऐसी ही दूसरी कुछ घटनाओं का विश्लेषण करें, तो मिल सकता है।
दूसरी तरफ, यह बात अब आम हो चुकी है कि किसी भी सार्वजनिक निर्माण कार्य की जिम्मेदारी सरकारों द्वारा कुछ गिनी-चुनी कंपनियों को ही दी जाती है, जिसमें उनका राजनीतिक स्वार्थ निहित होता है। यहां इस बात को साफतौर पर नजरअंदाज किया जाता है कि उस क्षेत्र में काम करने के लिए वह कंपनी लायक है या नहीं और उसके पास उस काम को करने का पर्याप्त अनुभव है या नहीं।
एक घड़ी बनाने वाली कंपनी को अगर पुल बनाने का कार्य सौंपा जाए तो फिर उस निर्माण की गुणवत्ता पर बात करना ही अर्थहीन है। लेकिन सत्ता पर सवार होकर राजनीतिक खेल खेलने के चक्कर में हमारे राजनेता हमेशा से ही आम नागरिकों की जिंदगी खतरे में डालते आ रहे हैं।
मोरबी की घटना इस खेल की एक कड़ी भर है। इस तरह की दुखद घटना होने के बाद सार्वजनिक मंचों से भावना प्रकट करना और फिर मृतकों के परिवारों को आर्थिक सहायता देने का पुराना सिलसिला तो चलता रहेगा।
असल मुद्दा तो यही है कि इस तरह के हादसे फिर से न हों, इसके लिए सरकार कितनी सजग रहती है। सार्वजनिक निर्माण कार्यों में होने वाले भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए क्या सरकार के पास कोई योजना है भी या नहीं? सार्वजनिक निर्माण कार्य के ठेके देते समय आवश्यक पारदर्शिता बरती जाए, इसके लिए सरकार की तरफ से कदम उठाए जाएंगे या नहीं!
ऐसे अनेक मुद्दों पर फिर एक बार गंभीरता से विचार करने के लिए मोरबी की यह घटना हमें विवश करती है। उम्मीद है कि इस दर्दनाक हादसे के बाद सरकार की आंख खुलेगी और इस तरह के हादसे आगे चलकर न हों, इसके लिए यथायोग्य कदम उठाए जाएंगे। हमारे देश में एक आम आदमी सरकार से उम्मीद लगाने के सिवा और कर भी क्या सकता है?
- गणेश शशिकला शिंदे, औरंगाबाद, महाराष्ट्र</strong>