बीते इक्कीस जनवरी को मोतिहारी में विश्व प्रसिद्ध अंग्रेजी के महान साहित्यकार जॉर्ज आरवेल की पुण्यतिथि स्थानीय जिला प्रशासन के सहयोग से मनाई गई। ऐसा प्रत्येक वर्ष होता है और फिर उन्हें हम सब समय के साथ भूल जाते हैं। शायद यही वजह है कि इस वर्ष पुण्यतिथि के ठीक दस दिनों पहले कुछ असामाजिक तत्त्वों ने उनकी प्रतिमा को क्षति पहुंचाने के बाद उसे तोड़ कर बगल के कुएं में डाल दिया था। बाद में स्थानीय प्रशासन हरकत में आया और प्रतिमा को कुएं से निकाल कर पुनर्स्थापित किया गया।
यह लापरवाही नहीं तो और क्या है? एक ओर राज्य और केंद्र सरकार पर्यटन स्थलों को बढ़ावा देने की बात करती है और पुराने ऐतिहासिक स्थलों को खोज निकाल कर सौंदर्यीकरण का काम कर रही है, दूसरी ओर आरवेल दुनिया के चुनिंदा लोगों में से थे जो फासीवाद, नाजीवाद और स्टालिनवाद को समान रूप से देखते थे और उन्हें मानवता का संकट मानते थे।
आज उनकी जन्मस्थली चंपारण के मोतिहारी में ‘आरवेल हाउस’, जहां उनके नन्हें पांव कभी थिरकते थे, विकास के लिए जद्दोजहद में है। जबकि सन् 2010 में तत्कालीन कला संस्कृति मंत्री ने इस स्थान के संरक्षण की बात कही थी।
वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ‘आरवेल हाउस’ को संग्रहालय बनाने की घोषणा कर चुके हैं। लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा, जिससे आरवेल हाउस और उनके बचपन को आने वाली पीढ़ी के लिए संरक्षित करके रखा जा सके। जरूरत है इसे ऐतिहासिक स्थल के रूप में चिह्नित कर नए सिरे से संवारने-सजाने की। तभी हम आरवेल को चंपारण और देश से जोड़ सकते हैं।
’नितेश कुमार सिन्हा, मोतिहारी, बिहार