लेकिन जब राजनीतिक भागीदारी की बात आती है तो महिलाओं को हाशिये पर डाल दिया जाता है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढाने की मांग के पीछे यही सोच नहीं है कि उनकी मौजूदगी बढ़े, बल्कि यह भी है कि राजनीतिक विमर्श में भी उनको समान स्थान मिले, जिसमें कि आज भी अवसरवादिता, लैंगिक भेदभाव और अति पुरुषवादी सोच हावी है।
आज राजनीतिक आरक्षण होने के बावजूद महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या न्यून है। पार्टियां उन्हीं महिलाओं को टिकट देती हैं जो चर्चित रही हों या जिनकी कोई राजनीतिक विरासत हो। अधिकांश दल अपनी उन महिला कार्यकतार्ओं की अनदेखी कर देते हैं जो जमीनी स्तर पर काम कर रही हैं। अगर महिलाओं को टिकट मिलता भी है तो उनकी राह आसान नहीं होती है क्योंकि पूरी चुनाव प्रकिया में विभिन्न स्तरों पर पुरुषों का वर्चस्व है। पुरुषों की पितृसत्तात्मक सोच भी महिलाओं की राजनीति में भागीदारी की पूर्णतया पक्षधर नहीं है, इसलिए आज स्थानीय स्तर सरपंच पति, जनप्रतिनिधि पति आदि संस्कृतियां विकसित हो रही हैं। अगर जमीनी स्तर पर महिलाओं के लिए प्रयास हों तो आने वाले समय में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढाई जा सकती है।
’गुमान दायमा, नागौर
पाक की मानसिकता
पाकिस्तान में मंदिरों पर हमले की खबरें पिछले कुछ दिनों से चर्चा का विषय रही हैं। दो नए देश बनने के बाद अल्पसंख्यको को लेकर दोनों देशों में चिंता और आशंकाओं के बादल मंडराने लगे थे। लेकिन भारत ने सारी कठिनाइयों को पार कर यहां मस्जिदों, गुरुद्वारे, स्तूपों आदि की भली-भांति देखभाल की और हर अस्पसंख्यक समुदाय की समान रूप से रक्षा भी की।
लेकिन पाकिस्तान में इसके विपरीत हुआ। वहां पर जो हिंदू रह गए या जो भारत से गए, उनकी वर्तमान दशा सब बयां कर देती है। आजादी के बाद से ही पाकिस्तान के हुक्मरान अल्पसंख्यकों को जिस तरह कसे प्रताड़ित करते आए हैं और उनके धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाया है, उसे पूरी दुनिया ने देखा है। यह पाकिस्तान की हीन मानसिकता का परिचायक है। हालांकि अब यही प्रार्थना की जानी जानी चाहिए कि पाकिस्तान में ही गांधी की तरह कोई दूसरा मसीहा पैदा हो और अल्पसंख्यकों को अंधेरे की जिंदगी से उजाले में ले आए, ताकि जिस खुशी से हम भारत में ईद मनाते हैं, वैसे ही वहां भी दिवाली और गुरुपरब मनाया जा सके ।
’अविनाश उपाध्याय, दिल्ली</p>