हम सब एक नारा लगाते रहे हैं- ‘शिक्षा है व्यापार नहीं!’ लेकिन अब शायद यह अपने अंतिम मुकाम पर है, जब उच्च शिक्षा हमेशा के लिए व्यापार हो जाएगी। चौदह दिसंबर से नैरोबी में विश्व व्यापार संगठन की बैठक होने जा रही है। वहां 2005 के भारत के एक प्रस्ताव को समझौते में बदल दिया जाएगा, बशर्ते भारत उसे वापस न ले ले। गौरतलब है कि सन 2000 से ही सभी सरकारों की यह समझ रही है कि देश में उच्च शिक्षा की जरूरत देशी-विदेशी पूंजी से ही पूरी की जा सकती है। इसीलिए पूंजी को उच्च शिक्षा में प्रवेश की इजाजत दी गई।
यह लगातार दबाव बना रहा कि इस क्षेत्र को मुनाफे यानी व्यावहारिक रूप से व्यापार के लिए खोला जाए। यानी कॉलेज और विश्वविद्यालय वैसे ही हों जैसे टेलीफोन या साबुन बनाने वाली कंपनियां। शासक वर्ग ने यह समझ भी बनाई कि ज्ञान के क्षेत्र में भारत दुनिया को चुनौती दे सकता है, इसलिए इस क्षेत्र को मुनाफा कमाने के लिए दुनिया के बाजार के हवाले कर देना चाहिए। 2005 में डब्ल्यूटीओ को इस संदर्भ में प्रस्ताव भेज दिया गया।
दरअसल, भूमंडलीकरण का अर्थ ही है पूंजी की एक से दूसरे देश में निर्बाध तरीके से मुनाफा कमाने के लिए आवाजाही। पूंजी देशी हो या विदेशी, सबको समान अवसर। सरकार व्यापार वाले क्षेत्र में या तो हिस्सा न ले और अगर सरकार अपने विभाग को अनुदान देती है तो उसे बिना भेदभाव के दूसरों को भी अनुदान देना होगा। इसलिए डब्ल्यूटीओ से यह समझौता हो जाता है तो सरकार को अपने कॉलेज और विश्वविद्यालयों को अनुदान देना बंद करना होगा या फिर बिना भेदभाव के देशी-विदेशी विश्वविद्यालयों को भी देना होगा।
नतीजे का अंदाजा लगाना आसान है। मुनाफा तभी होता है जब लागत कम हो और कीमत अधिक। लागत कम होगी शिक्षकों को अनुबंध पर रखने, ऑनलाइन शिक्षा जैसे उपायों से। विद्यार्थियों की फीस को बढ़ा कर कीमत वसूली होगी। न कोई आरक्षण होगा, न सामाजिक न्याय। शिक्षा उसके लिए होगी, जिसकी जेब में पैसा होगा या जो कर्ज ले सकेगा। उम्मीद है कि रामलीला मैदान में छब्बीस नवंबर की जनसंसद इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाएगी। यों भी इससे बचने का एकमात्र उपाय यही है कि सरकार पर इस प्रस्ताव को वापस लेने के लिए जनदबाव बनाया जाए। (राजीव कुंवर, शालीमार गार्डन, गाजियाबाद)
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चुनौती का अवसर
इन दिनों भारत की गणना विश्व के सर्वाधिक युवा राष्ट्रों में की जा रही है। हमारी कुल जनसंख्या में काम करने लायक जनसंख्या (15-59 आयु वर्ग ) 62 फीसद से अधिक है और देश की 54 प्रतिशत से अधिक आबादी की आयु 25 वर्ष से कम है। इसका सीधा अर्थ है कि आज के विकसित देश जैसे अमेरिका, जापान और यूरोपीय मुल्कों की जनसंख्या धीरे-धीरे बुढ़ापे की ओर बढ़ रही है, जबकि भारत की जनसंख्या युवा है और अगले दो दशकों तक युवा बनी रहेगी।
गौरतलब है कि अगले दो दशकों में औद्योगिक देशों के श्रमबल में जहां चार प्रतिशत की कमी आएगी, वहीं भारत के श्रमबल में 32 प्रतिशत तक की वृद्धि होगी। नीतिकारों, राजनीतिक नेतृत्व और संपूर्ण भारतीय समाज के लिए देश की संरचना में हो रहे ये परिवर्तन एक चुनौती और अवसर दोनों ही हैं।
भारत को प्राप्त जनसंख्या-लाभांश की यह स्थिति अगले 25 वर्षों तक ही रहने वाली है। यदि देश का नेतृत्व इस लाभांश को भुनाने में सफल हो पाता है तो भारत के सामने विश्व की महान आर्थिक शक्ति बनने की अपार संभावनाएं हैं। इसका दूसरा पहलू है कि तेजी से बढ़ रहे श्रमबल को ‘मानव पूंजी’ में रूपांतरित कर पाने में भारत यदि विफल रहता है तो निकट भविष्य में देश में बेरोजगारी, निर्धनता और कुपोषण की स्थिति भयावह होगी और युवा पीढ़ी असंवैधानिक गतिविधियों के मकड़जाल में फंसती चली जाएगी। (पवन कुमार मौर्य, लंका, वाराणसी)
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निवेश और कौशल
अपनी विशाल जनसंख्या और मौजूदा सरकार की डिजिटल इंडिया परियोजना के साथ-साथ अन्य महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के चलते आज भारत पूरे विश्व के उद्योगपतियों के लिए एक बड़े बाजार के रूप में उभर रहा है और सभी बड़े निवेशकों की नजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विदेश दौरों पर टिकी रहती है। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मोदी ने विश्व की शीर्ष कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों से मुलाकात करके निवेशकों को भारत में उचित कारोबारी माहौल बनाने और उद्योग नीति में बदलाव का आश्वासन दिया है। मोदी की इन यात्राओं का असर भारतीय बाजार पर अभी से दिखने लगा है। गूगल ने भारत के 500 रेलवे स्टेशनों पर वाई-फाई सुविधा देने की बात कही है, साथ ही एंड्रायड पर दस भारतीय भाषाओं के की-बोर्ड उपलब्ध होंगे।
ये सारी बातें भारतीय उद्योगों और रोजगार के लिहाज से सकारात्मक संकेत हैं। पर इस सबके साथ-साथ देश की जनता की कार्यक्षमता और कुशलता बढ़ाने पर भी विशेष ध्यान देना होगा, ताकि उसे स्वयं का रोजगार शुरू करने में सहायता मिलेगी। (प्रशांत तिवारी, जौनपुर)
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जड़ों की ओर
मणिशंकर अय्यर की पाकिस्तानी टेलीविजन पर मोदी के संदर्भ में टिप्पणी निस्संदेह अमर्यादित है और निंदनीय भी। लेकिन इस तल्ख बयान की जड़ों में जाएं तो स्पष्ट होगा कि भारत के प्रधानमंत्री विदेश दौरों में पूर्ववर्ती शासन की कटु आलोचना कर अपने शासन को ऐतिहासिक बताते रहे हैं। वैसे भी मोदी काल में कभी इस तरह की कोई गौरवपूर्ण अनुभूति शायद कुछेक भक्तों को छोड़ कर किसी को भी हुई हो।
प्रधानमंत्री से परिधानमंत्री का कारवां प्रचारमंत्री तक जा पंहुचा और विदेशमंत्री का पद कब इतिहास बन गया, आभास ही नहीं हुआ। मोदीजी, देश की अपेक्षाओं को आपके द्वारा दी जाने वाली तथाकथित संजीवनी शायद अब भस्म बन चुकी है। उठिए और देखिए इस कराहते, बदहाल, जर्जर भारत को जिसकी जड़ों में आप जैसे ही राजनेताओं ने मट्ठा डाल रखा है! (अरुण यादव चंचल, इलाहाबाद)