‘भ्रष्टाचार के सेतु’ (संपादकीय, 6 जून) पढ़ा। वर्णित तथ्यों में सुस्पष्ट ढंग से लिखा गया है कि विकास की आड़ में वृहद परियोजनाओं में गुणवत्ता की अनदेखी की जा रही है। प्रश्न सही है कि जब प्रसंगित पुल पहले भी धराशाई हुआ था तो बिना तकनीकी जांच और निर्माणकर्ता से कोई गुणवत्ता की गारंटी लिए फिर उसे उसी योजना का कार्य संचालन क्यों सौंप दिया गया।
नौ साल से बन रहे पुल मुख्यमंत्री के ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ के रूप में जाना जा रहा था, क्योंकि इसी पुल के इर्दगिर्द ‘डाल्फिन प्रक्षेत्र’ निर्माण की रूपरेखा तय की गई थी। आश्चर्य है कि बिहार में इस पुल की एजेंसी को भागलपुर में निर्माणाधीन पुल की तरह पांच बड़े पुलों के निर्माण की जिम्मेदारी करीब साढ़े नौ हजार करोड़ रुपए के स्वीकृत प्राक्कलन सह निविदा के आधार पर दी गई है। क्या देश में अन्य कोई सदृश्य निर्माण एजेंसी नहीं है जिसे बड़े पुलों के निर्माण का दायित्व सौंपा जा सकता था?
यह घालमेल नेपथ्य में अनेक संशय को जन्म देता है। विगत कई वर्षों में राज्य निगरानी ब्यूरो की छापेमारी में पथ, पुल निर्माण से संबंधित अनेक वरीय अभियंता के पास से अकूत संपत्ति बरामद होने के साक्ष्य बता रहे हैं कि उनकी संलिप्तता निर्माणकर्ता एजेंसी से भलीभांति रही है। जांच सिद्ध होने पर कई अभियंताओं को नौकरी से हाथ धोना भी पड़ा है।
संपादकीय अंश में कटु सत्यता है कि निर्माण कार्य में सामग्री की गुणवत्ता संदेह के घेरे में है। स्थापित प्रावधान है कि कोई भी वृहद परियोजना के संचालन अवधि के विभिन्न स्तरों पर गुणवत्ता की जांच निर्धारित एजंसी से कराते हुए तकनीकी अनुमोदन पश्चात ही योजना को आगे बढ़ाया जाए।
स्वाभाविक है कि जब निर्माण कंपनी अतिशय बोझ से दबी हुई हो तो योजना कार्य का अनवरत अनुश्रवण संभव नहीं हो पाता है। दूसरी ज्वलंत प्रशासनिक समस्या है कि अधिकारियों की कमी के कारण राज्य के शीर्ष स्तरीय कुछ अधिकारियों को अति महत्त्वपूर्ण विभागों की दोहरी जिम्मेदारी सौंपी गई है। किसी-किसी अधिकारी के पास तो तीन से चार विभागों का प्रभार देने से उनकी कार्यक्षमता प्रभावित हो रही है।
ऐसे में सहज रूप से आकलन किया जा सकता है कि वे अपने कर्तव्य के पालन में निश्चय ही शिथिल होंगे। विकास और भ्रष्टाचार का मुद्दा तो पूरे देश में संक्रामक रोग की तरह है। इस संजाल में निर्माण एजेंसी और विभाग के बीच एक मौखिक समझौते सैकड़ों साल से जारी है। पिछले साल गुजरात में ध्वस्त हुए पुल, जिसमें सैकड़ों लोग अपनी जान गंवा बैठे, भी भ्रष्टाचार की अव्यक्त कथा कह रही है।
बुनियादी सवाल यह है कि संबंधित विभाग की निष्क्रियता और एजंसी से सांठगांठ जब तक जारी रहेगी, विकास के नाम पर भ्रष्टाचार की धरातलीय जांच आखिर कौन करेगा? विकास की तीव्र गति के साथ उसकी गुणवत्ता अगर तदनुसार नहीं है तो फिर उचित यही है कि योजनाएं उतनी ही ली जाएं, जिसपर तकनीकी और प्रशासनिक नियंत्रण सह पर्यवेक्षण निर्माण की कसौटी पर खरा उतर सके। बड़े से बड़े मामले में अनियमितता की जांच समय के प्रवाह में गुम हो जाया करते हैं, जब तक कि फिर नए घोटाले का जन्म न हो जाए।
अशोक कुमार पटना, बिहार।
मानसून में देरी
देश में सामान्य वर्षा की घोषणा के बाद मानसून में देरी होना नई चिंता का विषय है। मौसम विभाग की भविष्यवाणी फिलहाल नियत तारीख तक सही साबित नहीं हो पाई है। बंगाल की खाड़ी में भी सामान्य हलचल मानसून में देरी कर रही है। अगर इस बार भी मानसून के आने में विलंब हुआ तो आगामी फसलों के भविष्य को लेकर फिर किसानों के माथे पर शिकन उभरेगी।
प्रकृति में बदलाव पर्यावरण के प्रति लोगों की निष्ठुरता भी है जो दिनोंदिन उसके स्वरूप को तहस-नहस कर रही है। आमतौर पर दक्षिण-पश्चिम मानसून केरल में अपनी उपस्थिति सबसे पहले दर्ज कराता है। जून की शुरुआत में उसकी आमद होती है। एक हफ्ते से पखवाड़े भर के बीच उसके जोर पकड़ने और देश में बारिश के आसार बन जाते हैं।
शुरुआती मानसून की बरसात से दोनों फसलों के भविष्य की झलक तो मिल ही जाती है। लगातार प्रकृति के साथ खिलवाड़ और जमीन को सीमेंट कंक्रीट पिलाने से उसकी ऊपरी सतह कड़क हो गई है जो धरती का उदर तृप्त होने से रोकती है। लोग भी पर्यावरण दिवस मनाने के बाद उसकी महत्ता भूल जाते हैं। मानसून में देरी होना, अपर्याप्त बारिश का संकेत दोनों ही ऐसी परिस्थितियां हैं जो कृषि को बुरी तरह प्रभावित कर सकती हैं। कृषि पर हमारी अर्थव्यवस्था के टिके होने से भविष्य की चिंता लाजिमी ही है।
अमृतलाल मारू ‘रवि’, इंदौर, मप्र।
जिजीविषा का सौंदर्य
जिजीविषा या जीने की जिद और उसके लिए प्रकृति में कैसे संघर्ष होता है? एक पक्षी अपनी चोंच में एक मछली को लिए जा रहा है। यह पक्षी का भोजन बनेगा। मछलियां जो कि जल में रहती हैं। जल ही उनका जीवन है। बड़ी मछली छोटी मछलियों और अन्य का शिकार अपने भोजन के लिए करती है। यह जीवन संघर्ष प्रकृति के बीच चलता ही रहता है। यहां सब जीवन की दौड़ में बस शामिल रहते हैं। यह जीवन प्रियता और जीने की जिद ही यहां सौंदर्य को रचती है।
प्रकृति में सब एक दूसरे के लिए एक दूसरे के साथ चलते से दिखते हैं। यहां किसी की किसी से दुश्मनी नहीं दिखती। सबकी अपनी-अपनी जरूरतें और अपनी-अपनी आदतें हैं। अपने दाना-पानी के लिए, अपने भोजन के लिए अपना लक्ष्य तय कर सब आगे बढ़ते हैं और इस तरह सब अपने अपने हुनर का प्रयोग करते हैं। यह पक्षी भी कुछ इसी तरह शिकार कर झील में चल रहा है। हो सकता है कि अपने कुनबे परिवार में जाकर शिकार का अपने भाई-बंधु बच्चों के साथ आनंद ले। अभी तो यह दृश्य जिजीविषा और जीने की जिद को लिए चला जा रहा है। शांत झील पर यह एक नैसर्गिक सौंदर्य की हलचल है।
विवेक कुमार मिश्र, बारां रोड, कोटा।