करीब छह वर्ष पूर्व नोटबंदी हुई थी। मात्र चार घंटे के नोटिस पर पांच सौ और एक हजार रुपए के नोट कागज के टुकड़े बनकर चलन से बाहर हो गए थे, जिससे आम जनता का जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ था। उद्योग-धंधे और व्यापार भी नोटबंदी के दुष्प्रभावों से बच नहीं पाए थे। नोटबंदी का मुख्य उद्देश्य काले घन और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना बताया गया था।

बीते छह वर्षों में नोटबंदी के परिणाम और आंकड़े आधिकारिक तौर पर देश के सामने प्रस्तुत नहीं हुए। अब एक बार फिर दो हजार रुपए के नोट बंद करने की घोषणा हो गई! अगर दो हजार के नोट पर बंदिश से काला धन खत्म हो सकता है तो इसे प्रारंभ करने का औचित्य क्या था? शुरुआती दौर में भी इसके पीछे कोई ठोस कारण नजर नहीं आ रहा था। काला धन तो कुछ ही लोगों के पास हो सकता है।

पर नोटबंदी का प्रभाव तो सभी देशवासियों को भुगतना पड़ता है। विगत नोटबंदी के परिणाम और व्यापक विश्लेषण के बगैर एक और करीब-करीब नोटबंदी जैसा कठोर कदम अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। अपेक्षा की जानी चाहिए कि इस बार जनता को देश में व्याप्त काले धन की सच्चाई का पता चल सकेगा।
दल सिंह खरत, गाजीपुर।

अस्थिर मौसम

पहले बेमौसम बरसात, फिर अचानक उमस भरी गर्मी और लू का दौर। मौसम में सब कुछ अप्रत्याशित हो रहा है। दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के कई क्षेत्रों में अप्रत्याशित गर्मी देखने को मिल रही है। यह सब अनायास नहीं है। पिछले दिनों जारी विश्व मौसम संगठन (डब्लूएमओ) की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हाल में जिस तरह की उमस भरी गर्मी देखी गई, वह जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम है। बदलते मौसम के कारण ऐसी गर्मी और उमस की आशंका तीस गुना तक बढ़ गई है। कुछ देशों में गर्मी के कारण आग लगने और सड़कें टूटने की घटनाएं भी होने लगी हैं।

चिंताजनक बात यह है कि पेरिस समझौते के अंतर्गत तय लक्ष्य से दुनिया चूकती नजर आ रही है। औसत वैश्विक तापमान में 1.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। यह वृद्धि दो डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गई तो परिस्थितियां पूरी तरह हाथ से बाहर हो जाएंगी। भारत जैसे विकासशील और बड़ी आबादी वाले देश के सामने चुनौती और भी बड़ी है। हमें विकास भी करना है और उत्सर्जन को नियंत्रित भी करना है।

ऐसे में विकसित देशों को जिम्मेदारी निभाने के लिए गंभीरता से आगे आना होगा। सभी देशों को यह समझना होगा कि मौसम किसी देश की सीमा में बंध कर रहने वाली चीज नहीं है। पूरी पृथ्वी और मानवता के समक्ष पैर पसारते इस संकट की भयावहता की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
सदन जी, पटना, बिहार।

लोकतंत्र की मजबूती

भारत के लोकतंत्र ने फिर दिखाया कि क्यों इसको जीवंत बोलते हैं। राजनेता चाहे किसी दल का हो, उसकी हसरत हमेशा कुर्सी पर विराजमान बने रहने की होती है। इसके लिए वह जो न हो, वह प्रपंच भी करने में गुरेज नहीं करता। लेकिन मतदाता को अनपढ़ या मूर्ख मानना कितना महंगा पड़ता है, शायद पराजित दल को मालूम हो जाता होगा।

जनता को अगर कहा जाए कि उसके अलावा कोई विकल्प नहीं तो जनता इसका भी विकल्प ढूंढ़ ही लेती है। कुल जमा ये कि जनता ही लोकतंत्र में मालिक है। खुद को मालिक समझना दिन में ख्वाब देखने जैसा ही है। मतदाता को स्वच्छ प्रशासन दिया जाए, अच्छे शिक्षा संस्थान दिए जाएं, स्वास्थ्य सुविधाओं का दायरा बढ़ाया जाए, मूलभूत सुविधाओं पर काम किया जाए, ऐसा करने वाले दल लोगों के दिलों में भी रहेंगे और सरकार में भी। लेकिन अगर कहा जाए कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा, लेकिन आए दिन अफसरों के एक बड़ा कमीशन खाने की खबरें आती हैं तो लोग सब कुछ समझने लगते हैं।

धर्म एक बेहद निजी मामला है। लेकिन इसे अक्सर सड़कों पर लाया जाता है जब सत्ता पर खतरा हो। आज पढ़ा-लिखा मानुष यह समझने लगा है। कर्नाटक के लोगों ने लोकतंत्र को जीवंत किया, जिसकी समाज और देश को एकता की जरूरत है। एक घर हो या देश, जब हम अपने बच्चों में भेदभाव करने लग जाएंगे तो देश तरक्की नहीं कर सकता।

इसे इस भारत से अच्छा कोई नहीं समझ सकता, क्योंकि सदियों से वर्ण व्यवस्था को लागू कर देश की बड़ी आबादी को न सिर्फ शिक्षा, बल्कि मानवाधिकारों से भी वंचित रखा गया। इसी का परिणाम रहा कि ये देश सैकड़ों साल गुलाम रहा। वक्त सावधान रहने का है, न कि कबूतर की तरह आंख बंद करके खतरे को अपने घर में घुस आने का इंतजार करने का।
मुनीश कुमार, रेवाड़ी, हरियाणा।

शोषण का दायरा

‘जोखिम में बचपन’ (संपादकीय, 26 मई) पढ़ा। खासतौर से महानगरों में चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चों को स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ने वाले कार्यों में लगाया जाता है, जबकि कानूनन यह अवैध और दंडनीय भी है। गौरतलब है कि बच्चों के लिए इस उम्र में पढ़ना, लिखना खेलकूद और मौज-मस्ती जरूरत होती है। लेकिन कमाई के चक्कर में बचपन के साथ खिलवाड़ और शोषण किया जा रहा है।

दरअसल, इसके प्रति पालक भी जिम्मेदार और जवाबदेह हैं जो इस तरह के ठेकेदार से संपर्क करते हैं और काम पर भी भेजते हैं। कारखानों, होटल, ढाबा, लाज और व्यापारी और व्यवसायी के घर, दुकान और संस्थान के अतिरिक्त देखा गया है कि वकीलों और अन्य कानूनविदों के यहां भी ऐसे बच्चे काम कर रहे हैं। आवश्यकता है, पालकों को इस पर नियंत्रण करने और शिकायत करने की और संबंधित महकमों की ओर से कार्रवाई करने की। राष्ट्र का भविष्य ही बच्चे हैं।
बीएल शर्मा ‘अकिंचन’, तराना, उज्जैन।