आज देश में सार्वजनिक क्षेत्र के सत्ताईस बैंक हैं और इनका विलय करके सात या आठ बैंक बनाने का प्रस्ताव फिर से चर्चा में है। इसके पूर्व 2004 में तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने के लिए उनके विलय को प्रोत्साहित करने की बात कही थी। उनके बयान से उत्साहित भारतीय स्टेट बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष ओपी भट्ट ने दो सहायक बैंकों- स्टेट बैंक आफ सौराष्ट्र और स्टेट बैंक आफ इंदौर- का विलय भारतीय स्टेट बैंक में किया था।
गौरतलब है कि स्टेट बैंक आफ इंदौर मध्यप्रदेश का एकमात्र बैंक था जिसका प्रधान कार्यालय मध्यप्रदेश में था। वह सत्तासी वर्ष से लगातार लाभ दशा कर उस समय 150 प्रतिशत का लाभांश वितरण करते और क्षेत्रीय बैंकिंग आकांक्षाओं की पूर्ति करते हुए अनुत्पादक आस्तियों, पूंजी पर्याप्तता और औसत शाखा व्यवसाय आदि में भारतीय स्टेट बैंक से बेहतर स्थिति में था। इस बैंक के विलय का कर्मचारियों-अधिकारियों, नागरिक/ औद्योगिक/ व्यावसायिक संगठनों ने भारी विरोध किया था। इसी तरह निजी क्षेत्र के बैंक आफ राजस्थान का विलय आईडीबीआई बैंक में किया गया था। इन तीनों बैंकों की कई शाखाओं के विलय से बैंकिग सेवाओं का संकुचन, क्षेत्रीय आकांक्षाओं पर कुठाराघात हुआ है और भेदभाव व उत्पीड़न के चलते कई कर्मचारियों-अधिकारियों को समय पूर्व स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का रास्ता अपनाना पड़ा है। जब दो बैंकों के विलय के बाद भी भारतीय स्टेट बैंक की लाभप्रदता में कमी आई है और अनुत्पादक आस्तियों में बढ़ोतरी हुई है तो इससे सबक क्यों नहीं सीखा जा रहा है? इस अनुभव के बाद भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय का विचार क्यों किया जा रहा है?
भारत जैसे भौगोलिक रूप से विस्तृत और 127 करोड़ आबादी वाले विशाल देश को सार्वजनिक क्षेत्र में बैंकिग के संकुचन के बजाय विस्तार की आवश्यकता है। बैंकों के विलय के बाद शाखाओं के विलय से बैंकिंग सुविधाओं का संकुचन ही होगा। आज तक भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के एक भी बैंक को दीवालिया घोषित नहीं किया गया है न ही उनमें नागरिकों का पैसा डूबा है। अलबत्ता पंजाब नेशनल बैंक मेंं न्यू बैंक आफ इंडिया और ओरिएंटल बैंक आफ कामर्स में निजी क्षेत्र के ग्लोबल ट्रस्ट बैंक का विलय करके जनधन की सुरक्षा ही की गई है।
बैंकों के विलीनीकरण का अघोषित उद्देश्य बैलेंस शीट का आकार बड़ा दिखाना, बड़े औद्योगिक और व्यावसायिक घरानों को एक ही बैंक से बड़ी साख सुविधा उपलब्ध कराना और बड़े डूबत खातों को बट्टाकृत करके उन्हें लाभ पहुंचाना है। ये बैंक छोटे-छोटे और ग्रामीण क्षेत्र के जमाकर्ताओं की बचत राशि से बड़े लोगों को ऋण उपलब्ध कराएंगे और छोटे किसानों, व्यवसाइयों, उद्यमियों, छात्रों आदि को साख सुविधाओं से वंचित रख सूदखोरों के भरोसे छोड़ देंगे, जिनकी लूट और प्रताड़नाओं के चलते किसानों व अन्य की आत्महत्या की खबरें हम अक्सर सुनते रहते हैं। श्वेत कांति, हरित क्रांति, नीली क्रांति, भूरी क्रांति, शासन द्वारा प्रायोजित रोजगार योजनाओं, जनधन योजना, ढांचागत संरचना विकास के लिए उपलब्ध कराए वित्तीय संसाधन आदि को देखते हुए और उत्पादन वृद्धि, रोजगार निर्माण व क्षेत्रीय असंतुलन कम करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में और छोटे-छोटे बैंकों की स्थापना की आवश्यकता है। (सुरेश उपाध्याय, गीता नगर, इंदौर)
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सियासी हथियार
भगवान बुद्ध ने मूर्ति पूजा की मुखालफत की थी लेकिन उनके जाने के बाद उनके अनुयायियों ने उन्हीं की मूर्ति पूजा शुरू कर दी। अक्सर देखा जाता कि कोई महान व्यक्ति अगर किसी बुराई के विरोध में तर्क गढ़ता है तो उसके अनुयायी उसके जाने के बाद उन्हीं बुराइयों के साथ हो लेते हैं। ऐसा ही कुछ हमारे नेताओं ने बाबा साहेब आंबेडकर के साथ किया है। सभी पार्टियों ने अपने-अपने आंबेडकर गढ़ लिए।
बाबा साहेब का मकसद निचले तबकों को समाज में बराबर का दर्जा दिलाना था। इसके लिए उन्होंने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की। मगर यही आरक्षण बाद में इतना बड़ा सियासी हथियार बन गया। इसके आधार पर सत्ताएं बनने और बिगड़ने लगीं। एकीकृत समाज का सपना देखने वाले बाबा साहेब के आदर्शों को इसी आरक्षण की तलवार से छलनी कर दिया गया। आजाद भारत के नागरिकों को हमारे नेताओं ने जातियों में बांट कर वोटों में तब्दील कर दिया। आज वाकई आरक्षण की समीक्षा का जरूरत है। समीक्षा की जाए कि इस आरक्षण को नेताओं के चंगुल से कैसे मुक्त किया जाए। (आलोक कुमार, गाजियाबाद)
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नाबालिगों का कहर
विकासपुरी (दिल्ली) के डॉक्टर नारंग की नाबालिगों द्वारा निर्मम हत्या पर सभी स्तब्ध हैं। दुर्भाग्य से नाबालिगों के जुर्म का कहर बढ़ता ही जा रहा है। आज आवारा पशुओं की तरह ऐसे आवारा नाबालिगों के झुंड के झुंड हर तरफ अपनी खूब मनमानी और छोटे-बड़े जुर्म करते फिरते हैं, जिन्हें कोई रोकने वाला नहीं है। यदि कोई उन्हें रोकता भी है तो वह डॉक्टर नारंग की तरह इनका शिकार होता है।
इन बच्चों के अभिभावक भी क्या वैसे ही हैं? वे क्यों ध्यान नहीं देते कि उनके बच्चे किस दिशा में जा रहे हैं? अमीरों के बच्चे अपनी अमीरी और गरीबों के बच्चे अपनी गरीबी के कारण भी ये जुर्म करते हैं। इसलिए गरीबी और अमीरी में उचित संतुलन भी जरूरी है। इनके लिए सख्त सजा एक छोटा उपाय है। बड़ा हल तो जनसंख्या पर नियंत्रण के साथ प्रशासनिक सुधार, उचित व समान शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था ही है। (वेद मामूरपुर, नरेला, दिल्ली)
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मंत्री से विनती
सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली से विनती है कि हम जैसे बूढ़ों के लिए एक ‘एफएम भजन’ रेडियो चैनल यथाशीघ्र शुरू कराएं। इस पर रात बारह बजे से सुबह साढ़े पांच बजे हरिओम शरण, अनूप जलोटा, लता मंगेशकर, अनुराधा पोडवाल, कविता कृष्णमूर्ति आदि के गाए संतों के भजन सुनाए जाएं। रमेशभाई ओझा, मोरारी बापू, सुधांशु महाराज, स्वामी अवधेशानंद गिरिजी और अन्य साधु-संतों के व्याखान-प्रवचन भी सुनने को मिलेंगे तो बड़ा आनंद होगा। रात दिव्यानंद में बीतेगी। ‘नींद नहीं आती’ का तनिक भी दुख नहीं होगा। (हंसराज भट, बोरिवली, मुंबई)