चुनावों के इस दौर में विभिन्न दलों में होड़ लगी है कि कौन जनता को सरकारी खजाने से ज्यादा खैरात बांट सकता है। ये खैरात की घोषणाएं लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं, क्योंकि कहीं न कहीं ये हथकंडे लोकतंत्र की उस मूल भावना के विरुद्ध हैं, जिसमें भारत की चुनाव प्रणाली के नियमों के तहत मतदाता को किसी भी प्रकार का लालच देना निषिद्ध है। इससे चुनाव प्रक्रिया दूषित होती है और यह एक तरह की रिश्वत ही तो है। हाल ही में हो रहे चुनाव में मुफ्त की सौगातों की वर्षा हो रही है। उसे देख कर लगता है कि जैसे इन पार्टियों को कहीं से कुबेर का खजाना मिला हो और वे यह जनता पर न्योछावर करना चाहते हों!

मुफ्त सौगात बांटने की चुनावी परंपरा अपना कर हम साफ संदेश दे रहे हैं कि गरीब गरीब ही रहेगा और अमीर मौज मनाता रहेगा। लोकतंत्र के लिए सही कदम यही होगा की मुफ्त की सौगातों पर रोक लगे।

  • विभुति बुपक्या, आष्टा, मप्र

  • मनमानी और क्रांति
  • भारतीय समाजवाद से तात्पर्य है कि राज्य कल्याणकारी हो और जनता से प्राप्त आगत के तहत नीति निर्माण करे, इसीलिए भारत लोकनीति प्रधान देश है, किंतु विरोधाभास तब उत्पन्न होता है जब जनता से आगत लिए बिना नीति निर्माण कर लिया जाता है। इस चुनाव के माहौल में ऐसा ही कुछ हो रहा है। राजनीतिक दल अपने एजेंडे में वह सब कुछ समाहित कर रहे हैं, जो देश को अकर्मण्य और कमजोर बना रहा है। लैपटाप, टैब, मोबाइल और स्कूटी, यह सब जनता की मांग तो नहीं थी और न है, पर इसे एजेंडे में शामिल किया जा रहा है।
  • संयुक्त राष्ट्र इसीलिए ढह गया, क्योंकि वहां बिना जनता की मांग के नीति निर्माण कर लिया जाता था। फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका की क्रांति भी इसका उदाहरण हैं और यह सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि राज्य ने जनता की मांग के बिना नीति निर्माण कर लिया था। तो क्या आने वाले समय में, जब जनता जागरूक और प्रबुद्ध होगी, तो इस राजनीतिक ढर्रे पर चलते हुए क्रांति होने की संभावना है।
  • अंब्रीश सिंह, लखनऊ</li>