अभी हाल की घटनाओं पर अगर नेताओं के बयानों को देखें तो उनसे भारतीय राजनीति की विकृत छवि ही सभी के सामने प्रस्तुत होती है। जिन लोगों को देश की एकता, अखंडता और सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए बयान देने चाहिए, वे लोग ही अगर देश की एकता और धर्मनिरपेक्ष छवि को चोट पहुंचाने वाले बयान देंगे तो साधारण लोगों के पास क्या संदेश जाएगा? जिस देश का प्रधानमंत्री अपने देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महाशक्ति का दर्जा दिलाने के लिए प्रयासरत है, अगर ऐसे में ये लोग ऐसे बयान देंगे तो उससे भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भी गलत संदेश जाएगा। पर ये सब बातें तो उन लोगों को समझनी चाहिए, जो लोग किसी भी मुद्दे को लेकर बेवजह बोलने लग जाते हैं। अभी दादरी की घटना को लेकर नेताओं की जो बयानबाजी सामने आई उससे तो यही अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में चाहे कुछ भी हो, लेकिन ये लोग अपनी जबान को लगाम नहीं लगा सकते। उसके बाद इन्होंने गाय के मांस के मुद्दे पर भी मनमाने बयान दिए।

इन तमाम बयानबाजियों पर हरियाणा के मुख्यमंत्री से लेकर भाजपा विधायक संगीत सोम, साक्षी महाराज, केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा आदि शामिल हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी ऐसे बयानों पर ध्यान न देने की जनता से अपील कर चुके हैं, लगता है उसका कुछ असर दिखाई नहीं दे रहा है। हरियाणा में दलित परिवार के घर में आग लगाने जैसी जघन्य घटना को लेकर भी बयानबाजी हुई। अब देखना यह है कि इन बयानबाजियों को रोकने के लिए राजनीतिक दल और सरकार क्या कदम उठाती है, जिससे देश की एकता, अखंडता और धर्मनिरपेक्ष छवि बनी रह सके। (मोहन मीना, बीएचयू, वाराणसी)

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महंगाई की मार

गरीब तबकों के भोजन में पौष्टिकता की न्यूनतम जरूरत को पूरा करने के मामले में कभी दालों का उदाहरण दिया जाता था। मगर आज पहले ही महंगाई से त्रस्त लोगों को दाल की कीमतों ने जिस तरह परेशान करना शुरू कर दिया है, वह चिंताजनक है। हालत यह है कि दालों की कीमत आबादी के एक बड़े हिस्से की पहुंच से दूर होती जा रही है। अरहर और उड़द की दालें जहां दो सौ रुपए किलो के भाव तक पहुंच गई थी, वहीं मसूर और मूंग की कीमत में भी भारी उछाल आया है। थोक और खुदरा बाजार की कीमतों में तीस-चालीस रुपए का अंतर है।

सवाल है कि आखिर यह नौबत क्यों आई कि कम आमदनी वाले लोगों के लिए आज दालें सपना होती जा रही हैं? इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि देश के स्टॉक में कमी के चलते विदेशों से दालों का आयात न हो तो इनकी कीमतें और ऊंची जा सकती हैं। इस स्थिति के लिए दलहन की उपज में लगातार आ रही गिरावट का हवाला दिया जाता है। किसान दलहन की खेती करने से इसलिए हिचकते हैं कि उन्हें वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता।

यही वजह है कि पिछले करीब बीस सालों से दालों (दलहन) की उपज लगातार कम होती जा रही है और किसान दूसरी नकदी फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। सवाल है कि वे कौन लोग या एजेंसियां हैं, जो किसानों से सस्ते दामों पर दालें लेकर बाजार में ऊंची कीमत पर बेचती हैं। किसानों को अपनी उपज की वाजिब कीमत न मिलने और बाजार में कारोबारियों की लूट को खुला छोड़ने वाली सरकारों की क्या कोई जिम्मेदारी नहीं है! (प्रियंका गुप्ता, कवि नगर, गाजियाबाद)

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तेल का खेल

सीरिया के राष्ट्रपति बसर अल-असद भी सद्दाम हुसैन की तरह अमेरिका और ब्रिटेन को कम कीमत पर तेल और ठेका देने से आनाकानी कर रहे थे, जो दुनिया के दारोगा को नागवार गुजरा तो उसने पहले सीरिया की असद सरकार गिरानी चाही, उसमें वह सफल न हो सका। पर कुछ लोगों का मानना है कि उसने आइएसआइएस को बढ़ावा देकर आधे से ज्यादा सीरिया पर कब्जा करवा दिया और आइएस द्वारा आधी कीमत पर बेचे जा रहे तेल को अमेरिका और यूरोपीय देश खरीद रहे हैं।

जिससे सबसे ज्यादा झटका सऊदी अरब को लगा है, जहां दो साल पहले क्रूड आॅयल एक सौ चार डॉलर प्रति बैरल की दर से दुनिया को बेच रहा था, अब आइएस के चलते छियालीस से अड़तालीस डॉलर प्रति बैरल की अंतरराष्ट्रीय दर चल रही है। इन सब खेलों से साफ हो जाता है कि यह सब तेल का ही खेल है। जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता! (राज सिंह रेपसवाल, जयपुर)

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सियासी नफा-नुकसान

भारतीय राजनीति में समाजसेवी अण्णा हजारे और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार आदि कुछ नेताओं के उद्भव के आधार समाजवाद की विकास की अवधारणा से जुड़े हुए हैं। साथ ही भारत में नए राजनीतिक समीकरणों का उद्भव निश्चित रूप से समाजवाद की एक नई सोच को जन्म दे रहा है।

इन नेताओं और समाजसेवियों की पूर्व की सफलताओं और विफलताओं के कारण संदेह के बादल कुछ ऐसे व्याप्त हैं, जो कि बार-बार यही सोच रहा है कि समाजवाद की यह नई सोच भारतीय समाज को कितना नफा-नुकसान पहुंचाएगी? (हेमंत कुमार गुप्ता, लखनऊ)

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संगीत के मायने

भारतीय संस्कृति में हमें बहुत ज्यादा बदलाव देखने को मिल रहे हैं। अगर हम भारतीय संगीत की बात करें तो इसमें भी बहुत फेर-बदल हो रहा है। इन सबसे अगर हम पुरानी फिल्मों की तुलना करें तो तब के संगीत में और आज के संगीत में बहुत अंतर आ चुका है। पुराने गीत जब संगीतकार बनाते थे तो उन गीतों के शब्दों में जिंदगी के सही मायने होते थे। ऐसा लगता था मानो ये गीत कहीं न कहीं हमसे जुड़े हुए हों।

पर आज के संगीत में ऐसा कुछ भी सुनने को नहीं मिलता। आज के गीतों में शब्दों से ज्यादा शोर सुनाई देता है। इन गीतों का सही मायने में कोई मतलब ही नहीं होता। गीत में जो शब्द हैं, उनका अर्थ लोगों की समझ से परे है। संगीत का मतलब होता है मधुरता, जो शायद आज हमारा समाज खोता जा रहा है। (सिम्मी कौल, दिल्ली)