उपमहाद्वीप में बढ़ती हुई असहिष्णुता पिछले दिनों कराची में पाकिस्तान के मशहूर कव्वाल और सूफी गायक अमजद साबरी की हत्या कर दी गई। मरहूम अमजद साबरी न केवल पाकिस्तान, बल्कि पूरे विश्व में अपनी कव्वाली के लिए प्रसिद्ध थे, विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप में उनके प्रशंसकों की संख्या लाखों में है। पश्चिमी जगत में भी उनके कई कार्यक्रम हुए और वहां प्रशंसकों ने उन्हें ‘रॉकस्टार कव्वाल’ की संज्ञा दी थी। इस हत्या की जिम्मेदारी तहरीक-ए-तालिबान ने ली है।

इस हत्या को न केवल भारत, बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बढ़ती हुई असहिष्णुता और कट्टरपंथ के नजरिये से ही देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि बांग्लादेश में भी एक के बाद एक स्वतंत्र ब्लॉगर्स, जो स्वयं को नास्तिक और प्रगतिशील घोषित करते थे, की हत्याएं की जा रही हैं। इनका एकमात्र दोष यही था कि ये नास्तिक थे और धर्म में व्याप्त आडंबर, पाखंड, कट्टरपंथ और कठमुल्लेपन की घोर आलोचना करते थे और प्रकृतिवादी थे। बांग्लादेश में अब कट्टरपंथी ताकतें एक कदम आगे जाकर संस्कृतिकर्मियों को भी मारने लगी हैं जिन्होंने कभी स्वयं को नास्तिक नहीं घोषित किया। भारत में भी धार्मिक उन्मादियों द्वारा की गई नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या को इसी परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है।

ये तीनों भी खुल कर स्वयं को नास्तिक घोषित करते थे और प्रगतिशील विचारों के चिंतक थे। इन हत्याओं और भारत में बढ़ती हुई असहिष्णुता के विरोध में जब हमारे बुद्धिजीवियों ने अपने पुरस्कार वापस करने शुरू किए तो बड़ी चालाकी से इस विरोध को बिहार चुनाव से जोड़ दिया गया। यहां तक कि सोशल मीडिया पर इन बुद्धिजीवियों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ कह कर संबोधित किया गया और उनके अंदर पल रहे दर्द और पीड़ा को राजनीतिक रंग दे दिया गया। उस समय बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन भी पुरस्कार वापसी मुहिम के विरोध में उतर आर्इं और उन्होंने कहा कि जिन्हें लगता है भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है उन्हें बांग्लादेश में हालात देखने चाहिए। मैं यहां तसलीमाजी से पूछना चाहता हूं कि क्या हमें इस बात का इंतजार करना चाहिए कि जब भारत में हालात पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे हो जाएं तब बुद्धिजीवियों का विरोध उन्हें उचित लगेगा!

जिस तरह पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बुद्धिजीवियों, प्रगतिशील, चिंतकों, ईशनिंदा करने वाले कलाकारों और स्वयं को नास्तिक कहने वाले लेखकों, कवियों और ब्लॉगर्स की हत्याएं हो रही हैं वे निंदनीय हैं और इनके खिलाफ आवाज बुलंद होनी चाहिए क्योंकि ये हत्याएं दरअसल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला हैं। ये धर्म के कट्टरपंथी ठेकेदार कब समझेंगे कि वे किसी व्यक्ति को तो मार सकते हैं उसके अंदर के चिंतक, विचारक को नहीं।

विपुल प्रकर्ष, इलाहाबाद