एक बार फिर कोरोना ने पैर पसारना शुरू कर दिया है, जिससे सरकारों की चिंता बढ़ गई है। बाबजूद इसके लोगों के कानों पर जूं नहीं रेंगती, मानो नामसमझी का तगमा मिलने बाला हो। डाक्टरों का कहना है कि मास्क ही हमें कोरोना से निजात दिला सकता है, पर जनता को मास्क से कोई रिश्ता ही नहीं। वहीं शारीरिक दूरी का तो बस नियम बन कर रह गया है, राजनेता से लेकर आम जनता तक ने शारीरिक दूरी का मखौल बना कर छोड़ दिया है। राजनेताओं को रैलियों से फुर्सत नहीं, वे बस अपना वोट बैंक समेटने में लगे हैं। यह अत्यंत चिंताजनक है।

सरकारों ने भी प्रतिबंध के नाम पर बस शिक्षण संस्थान बंद किए हैं, और इस कड़ाके की ठंड में रात्रि कर्फ्यू लगा कर कारवाई के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति कर ली। सड़क से लेकर बाजारों तक भीड़ आम दिनों के तरह ही उमड़ रही है, सभी कार्यालय में कर्मियों की संख्या जस की तस है।
अर्थव्यवस्था पहले की तरह फिर अपाहिज न हो, उसके लिए बाजार खुलना आवश्यक है, लेकिन साथ ही कोरोना पर विजय पाने के लिए कोरोना नियमों का कड़ाई के साथ पालन हो, यह भी ध्यान में रखना होगा। साथ ही हमें यह समझना होगा कि मास्क और शारीरिक दूरी ही हमें कोरोना से निजात दिला सकते हैं।
भावना झा, पटना</p>

लापरवाही खतरनाक

देश में कोरोना मरीजों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी देखी जा रही है। सरकार बंदी जैसा कठोर कदम नहीं उठाना चाहती। विश्वविद्यालयों, चिकित्सालयोंं, स्कूलों तथा अन्य विभागों में सामूहिक संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं। कुछ विभाग जैसे पुलिस, स्वास्थ्य, अदालत आदि ऐसे हैं जिन पर इस वैश्विक महामारी में ज्यादा दबाव बना हुआ है। अगर इन विभागों में सामूहिक संक्रमण के मामले बढ़ते हैं तो विषय चिंताजनक बन जाता है। सामूहिक संक्रमण के कारण सबसे अधिक सरकारी काम काज प्रभावित हो रहा है।

केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव के अनुसार वर्तमान में कोरोना के पांच से दस प्रतिशत मरीजों को ही भर्ती करने की जरूरत पड़ सकती है, जबकि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान यह आंकड़ा बीस से तेईस फीसद था। पर जिस गति से मामले बढ़ रहे हैं, उसमें अचानक परिस्थितियां बदल भी सकती हैं। राहत की बात है कि इस बार दूसरी लहर की तरह अफरा-तफरी का माहौल नहीं है। जिन्होंने टीके ले रखे हैं उन्हें भर्ती होने की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है। विभागों को अपने कर्मचारियों में सौ फीसद टीकाकरण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रयास करना होगा, चाहे इसके लिए कोई सख्त नियम ही क्यों न बनाने पड़े।
राजेंद्र कुमार शर्मा, रेवाड़ी, हरियाणा

सरकारी का मोह

आज का युवा वर्ग सरकारी नौकरियों को वरीयता देता है, क्योंकि उसे लगता है कि सरकारी नौकरी होने से समाज में मान-सम्मान अधिक होगा। इससे परिवार, यार-दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच प्रतिष्ठा और रुतबा बढ़ता है। उनके अनुसार सरकारी नौकरी में काम का तनाव कम और कमाई के कई स्रोत होते हैं। उन्हें मालूम है कि निजी क्षेत्र की नौकरियों में परिश्रम ज्यादा करना होता है, तभी परिणाम अच्छे आते हैं। वे थका देने वाले श्रम से कन्नी काटते से दिखाई पड़ते हैं।

सरकारी कामकाज के घंटे निश्चित होते हैं और वेतन, भत्ते आदि भी युवा वर्ग को लालायित करते हैं। सरकारी नौकरी युवाओं के साथ उनके मां-बाप के लिए भी उनके विवाह में मोटे दहेज की आशाएं जगाती है। सरकारी नौकरी होने से आजादी के साथ, जिंदगी सही पटरी पर दौड़ेगी और बुढ़ापा आराम से कटेगा, यह सोच भी युवाओं को सरकारी नौकरी की ओर आकर्षित करती है, यह किसी से छिपा नहीं है। मगर सवाल है कि सरकारी नौकरी इतनी बड़ी युवा आबादी को उपलब्ध होगी कहां से।
नरेश कानूनगो, बंगलूरू