किसी भी देश के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास में बहुत बड़ी भूमिका होती है। वहां युवा किस दिशा में जा रहे है, इसी से तय होती है उस राष्ट्र के सुनहरे भविष्य की तस्वीर। इसलिए इस वर्ग का विवेकशील, नैतिक, शैक्षणिक और प्रतिभावान होना बेहद जरूरी है और यह सब बातें भारत पर तब और ज्यादा सटीक तरीके से लागू होती हैं जब खुद भारत दुनिया का सबसे युवा आबादी वाला देश हो। युवाओं की अपनी कुछ समस्याएं होती हैं, लेकिन हमने पिछले कुछ दशकों से देखा है कि युवा अगर किसी बड़ी समस्या से जूझ रहा है तो वह है नशा। आज हमें समझना होगा कि नशा केवल नशीले पदार्थों तक सीमित नहीं रह गया है। यह इससे भी अधिक आगे निकल चुका है।
आज की वर्तमान युवा पीढ़ी में इंटरनेट पर उपलब्ध अश्लीलता का नशा बेहद तेजी से बढ़ रहा है, जिसके चलते हमारे सभ्य समाज का ढांचा नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहा है। इसी कारण हम महिलाओं के खिलाफ बलात्कार या अन्य अपराधों को रोकने में लगातार विफल हो रहे हैं। दूसरा, ई-स्पोर्ट यानी आॅनलाइन गेम का नशा एक अन्य गंभीर समस्या बन चुका है, जिसके चलते युवाओं के शारीरिक और मानसिक, दोनों स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसी वजह से इनमें अवसाद के मामले भी देखे जा रहे हैं। फिर आभासी दुनिया यानी सोशल मीडिया के मंचों पर खुद को बेहतर बताने का नशा है। जब ऐसी जगहों पर इनके मुताबिक परिणाम नहीं आते हैं तो ये फिर अपना धैर्य खो देते हैं। हताश हो जाते हैं।
इसके अलावा, अगर युवाओं के खानपान पर ध्यान दें तो हम पाएंगे कि इनमें तेजी से जंक फूड एवं मांसाहार खाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। ऐसे युवाओं में एक नशा और भी बड़ी तीव्रता से घुसपैठ कर रहा है खर्चीली पद्धति या फिजूलखर्ची का नशा। फिर चाहे इन युवाओं की आर्थिक स्थिति कैसी ही हो। हम एक सशक्त और आत्मनिर्भर समाज और देश चाहते हैं तो इसके लिए हमें अपने युवाओं को बेहतर दिशा प्रदान करनी होगी।
’सौरव बुंदेला, भोपाल, मप्र
तालिबान के सहयोगी
अमेरिकी सेना पिछले बीस साल तक अफगानिस्तान में तैनात रही। कोरोना को रोकने के लिए अमेरिका को कुछ समय के लिए पूर्णबंदी लगाना पड़ा। इसका आर्थिक झटका अमेरिका को लगा है। अमेरिकी सेना भी अफगानिस्तान में टिकने से कतरा रही थी। ऐसी स्थिति में कोई भी देश दूसरे देश में सैनिकों को तैनात करने का जोखिम नहीं उठा सकता। इसी को ध्यान में रखते हुए अमेरिका ने अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी का ऐलान किया है। यह पहली स्थिति है। दूसरी स्थिति अफगान प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार है। तालिबान को वापस आने के लिए ये दो चीजें सहायक साबित हुई।
गौरतलब है कि मौजूदा हालात के बावजूद अफगानिस्तान में अभी भी पाकिस्तान, चीन और रूस के दूतावास बने हुए हैं। यह आशंका जताई जा रही है कि इन देशों ने तालिबान को गुपचुप तरीके से मदद की है। इन सबके बावजूद पड़ोसी देश रूस खामोश है। वह न तो मदद के लिए आगे आ रहा है और न ही वहां अपने सैनिकों को भेजने का इशारा कर रहा हैं। यानी वे पड़ोसी अफगानिस्तान में तालिबान के शासन को स्वीकार करते हैं और उसका आनंद ले रहे हैं। आतंकियों को पालने वाले देशों में पाकिस्तान के साथ रूस भी शामिल है। हथियारों के मामले में रूस एक शक्तिशाली देश है। तालिबान के पास मौजूद हथियारों से यह जाहिर होता है। लेकिन उनके पास गोला-बारूद के कारखाने हैं, ऐसा कभी सुनने नहीं आया। अमेरिका के पीछे हटने का फायदा उठा कर तालिबान की मनमानी शुरू हो चुकी है।
’जयेश राणे, मुंबई, महाराष्ट्र</p>
