परमजीत सिंह वोहरा

आज विश्व के आर्थिक मानचित्र पर भारत की सशक्त पहचान है और बहुत हद तक संभव है कि आने वाले दस वर्षों में यह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाए। इस संदर्भ में यह सोच बिल्कुल निराधार लगती है कि कुछ कंपनियां आपसी गठजोड़ से मूल्यों में एकाधिकार स्थापित कर सकती हैं।

इस बात पर इन दिनों विभिन्न अर्थशास्त्रियों तथा आर्थिक विशेषज्ञों के बीच वैचारिक जोर आजमाइश चल रही है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र एकाधिकार की स्थिति में आ गया है? नब्बे के दशक से पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था लाइसेंसीकरण के युग में थी, पर उस दौरान जब विदेशी मुद्रा का संकट बहुत गहरा गया, तब निजी क्षेत्र ने ही आर्थिक सुधारों को वास्तविक अमलीजामा पहनाया।

फिर बाद में उसे वैश्वीकरण की भी सहायता मिली। आज भारत चार खरब डालर के आसपास की अर्थव्यवस्था है, जिसके चलते वह विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। दूसरा पक्ष यह है कि आज भारत विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला मुल्क बन गया है। पर यह पक्ष चिंता पैदा करता है, क्योंकि भारत में पिछले लंबे अरसे से गरीबी और अमीरी के बीच की खाई लगातार बढ़ रही है। यह भी कहा जा रहा है कि भारत का विश्व की जनसंख्या में जितना अंशदान है, उससे अधिक अंशदान विश्व की गरीबी में है और इसे निजी क्षेत्र के लगातार बढ़ रहे लाभ से प्रत्यक्ष रूप से जोड़कर देखा जा रहा है।

इन सबके बीच पिछले दिनों एक मशहूर अर्थशास्त्री ने जब अपने शोध के माध्यम से यह अंदेशा जताया कि भारत के पांच बड़े निजी घराने आधारभूत संरचनाओं के विकास से संबंधित क्षेत्रों- स्टील, एल्युमीनियम, सीमेंट, संचार, बुनियादी ढांचा, कच्चा तेल आदि- में एकाधिकार की स्थिति में पहुंच चुके हैं और आने वाले समय में वस्तुओं के मूल्यों पर भी उनका एकाधिकार स्थापित हो जाएगा।

नतीजतन, आम आदमी आर्थिक विकास की मुख्यधारा से शीघ्र ही दूर हो सकता है। 1991 में इन निजी घरानों का आधारभूत संरचनाओं से संबंधित क्षेत्रों के उद्योगों में दस प्रतिशत का योगदान था, जो 2021 तक बढ़ कर अठारह प्रतिशत हो गया है। आश्चर्य कि इस दौरान इन पांच घरानों के बाद के जो औद्योगिक घराने हैं, उनका अंशदान बड़ी तेजी से गिरा है। यानी इन पांच घरानों ने दूसरों के कंधों पर चढ़ कर अपना विकास किया है।

इसके अलावा इन औद्योगिक घरानों में व्यावसायिक विलय और अधिग्रहण का प्रतिशत भी बहुत बढ़ा है। इसलिए चर्चा है कि सरकारी उपक्रमों के विभाजन की आर्थिक नीतियों जैसा कुछ निजी क्षेत्र में भी होना चाहिए, ताकि अर्थव्यवस्था में समावेशी आर्थिक विकास की विचारधारा सदा बनी रहे।

अब इसमें तस्वीर का दूसरा पक्ष यह भी है कि आधारभूत संरचनाओं के विकास से संबंधित क्षेत्रों में वर्ष 1990 से लेकर 2015 तक पांच बड़े निजी औद्योगिक घरानों का अंशदान कुल संपत्तियों और मुनाफे में लगातार गिरा है। मसलन, 1990 में जहां पांच बड़े निजी औद्योगिक घरानों का कुल विक्रय में अंशदान 62.40 प्रतिशत था, वह घट कर 2015 में 42.80 प्रतिशत ही रह गया।

उसी तरह इनके बाद के पांच औद्योगिक घरानों का अंशदान भी कम हुआ था। 1990 में वह 10.40 प्रतिशत था, जो 2015 में 5.40 प्रतिशत रह गया। पर गौर करने वाली बात यह है कि अन्य औद्योगिक घरानों या कंपनियों का कुल विक्रय में मुनाफा 1990 से 2015 तक दोगुना बढ़ा। 1990 में उन सबका अंशदान 27.20 प्रतिशत था, जो 2015 में 51.70 प्रतिशत पर चला गया।

इन सबके बीच 2015 के बाद निश्चित रूप से पहले पांच बड़े औद्योगिक घरानों का ही अंशदान बढ़ा है, पर दूसरे किसी औद्योगिक घरानों का नहीं। अब इस पक्ष पर यह एकतरफा सोच बना लेना कि भारतीय अर्थव्यवस्था में पांच औद्योगिक घरानों ने पिछले कुछ समय में एकाधिकार जैसी स्थिति बना ली है, तो वह उचित नहीं लगता। तथ्य यह भी है कि पिछले पांच वर्ष का समय आर्थिक उठापटक का रहा है। उसी दौरान भारत में नई कर नीति आई, जिसने संपूर्ण व्यापार जगत को प्रभावित किया और बाद में कोरोना का आर्थिक संकट भी रहा।

एक तथ्य यह भी महत्त्वपूर्ण है कि आधारभूत संरचनाओं के व्यापार में लगातार नए व्यापारिक घरानों तथा कंपनियों की आवक बढ़ती रही है। 1990 में आधारभूत संरचनाओं के क्षेत्र में मात्र 439 व्यापारिक घराने थे, जो 2020 में 1242 तक पहुंच गए हैं। जाहिर है कि अगर भारतीय अर्थव्यवस्था में पांच बड़े औद्योगिक घरानों का ही एकाधिकार होता, तो क्या अन्य व्यापारिक घरानों या कंपनियों की संख्या लगातार बढ़ रही होती? अब अगर विलय और अधिग्रहण की बात की जाए, तो यह समझना आवश्यक है कि सभी तरह के अधिग्रहण नकारात्मक अर्थव्यवस्था में नहीं होते हैं।

गौरतलब है कि हमने कोरोना के दौरान देखा कि आनलाइन शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी कंपनी ने कई छोटी स्टार्टअप कंपनियों का अधिग्रहण किया और वह अधिग्रहण छोटे स्टार्टअप के लिए संजीवनी बना। वहीं दूसरी तरफ, उस बड़ी कंपनी को समाज में इससे एक नई पहुंच भी मिली। इस पक्ष पर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग भी है और वह अपनी भूमिका सार्थक ढंग से निभा रहा है। विलय और अधिग्रहण के कानूनों में भी लगातार परिवर्तन किया जा रहा है। चालू वित्तीय बजट में ‘डील वैल्यू’ को भी सम्मिलित किया गया। पहले मात्र संपत्तियों का मूल्यांकन तथा कुल कमाई को मूल्यांकन का आधार समझा जाता था।

भारतीय अर्थव्यवस्था में संचार क्षेत्र मुख्य धुरी के रूप में पिछले कुछ समय से उभरा है, जिसने तकनीकी के विकास को एक नई दिशा दी है। इस संबंध में यह चर्चा भी बहुत आम है कि इस क्षेत्र में नए व्यापारिक घरानों की आवक बिल्कुल बंद है, क्योंकि बड़े औद्योगिक घरानों ने अपना एकाधिकार स्थापित कर रखा है। यह गलत है। संचार क्षेत्र में भारी पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है।

सभी बड़े देशों में संचार क्षेत्र को कुछ ही औद्योगिक घराने संचालित करते हैं। गौरतलब है कि एक बड़े औद्योगिक घराने के इंटरनेट क्षेत्र पर एकाधिकार की स्थिति बनाने की चर्चा होती है, तो कहा जाता है कि उसने लंबे अरसे तक इंटरनेट मुफ्त में बांटा। इस संबंध में यह पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है कि अगर कोई कंपनी अपनी लागत को नियंत्रित या कम करके ग्राहकों को आकर्षित करती है, तो यह गलत नहीं है।

भारत में संचार की लगभग सभी कंपनियों को वर्ष 2021 में भारत सरकार द्वारा वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई गई थी, क्योंकि वे मुनाफे में नहीं थीं। गौरतलब है कि भारतीय संचार कंपनियां और टेलीकाम विभाग के अंतर्गत लंबे अरसे तक मुनाफे की वास्तविक परिभाषा पर विवाद रहा है। इसका कारण संपत्तियों से होने वाला मुनाफा है।

आज विश्व के आर्थिक मानचित्र पर भारत की सशक्त पहचान है और बहुत हद तक संभव है कि आने वाले दस वर्षों में यह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाए। इस संदर्भ में यह सोच बिल्कुल निराधार लगती है कि कुछ कंपनियां आपसी गठजोड़ से मूल्यों में एकाधिकार स्थापित कर सकती हैं। आधारभूत क्षेत्र के विकास या व्यापार से संबंधित सभी कंपनियों में उत्पादों की लागत आज भी वैश्विक स्तर से नियंत्रित होती है।

इसलिए यह एक निराधार सोच है कि भारत में निजी क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था पर एकाधिकार स्थापित कर लिया है। एक बात और स्पष्ट है कि पिछले दो-तीन दशक से अर्थव्यवस्था की बागडोर पूरी तरह निजी क्षेत्र के हाथ में है। आजादी के पहले पचास वर्षों तक सरकारी क्षेत्र द्वारा तकरीबन अस्सी प्रतिशत से अधिक लोगों को समाज में रोजगार उपलब्ध कराया जाता था, जो अब बिल्कुल पलटकर निजी क्षेत्र की झोली में चला गया है। निजी क्षेत्र को आर्थिक लाभ का हक देना वाजिब है, क्योंकि अर्थव्यवस्था को विस्तार इसी से मिलता है।