योगेश कुमार गोयल
दुनियाभर में खुदकुशी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं, लेकिन भारत में आत्महत्याओं का आंकड़ा काफी चिंताजनक है। लोगों में अवसाद निरंतर बढ़ रहा है, जिसके चलते कुछ लोग आत्महत्या जैसा हृदय विदारक कदम उठा बैठते हैं। जीवन से निराश होकर आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति गंभीर चिंता का सबब बन रही है।
देश के प्रमुख कोचिंग केंद्र बने राजस्थान के कोटा में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी को लेकर अत्यधिक मानसिक दबाव के कारण जब-तब विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं सामने आती रहती हैं। अब आइआइटी जैसे भारत के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग संस्थानों और कुछ अन्य प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों में भी विद्यार्थियों की आत्महत्या के मामले समाज को झकझोरने लगे हैं।
कोटा में आठ से 25 मई के बीच ही चार छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें सामने आर्इं। पिछले दिनों सीबीएसई की बारहवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम आने पर केवल दिल्ली में ही तीन छात्रों की आत्महत्या की खबर भी स्तब्ध करने वाली थी। ये तीन ऐसे मामले हैं, जो देश की राजधानी से मीडिया की सुर्खियों में आए। लेकिन ऐसे न जाने कितने ही मामले देश के दूरदराज के इलाकों में घटित होते रहते हैं, लेकिन वे मीडिया की सुर्खियां नहीं बन पाने के कारण लोगों की नजरों में नहीं आ पाते।
चिंताजनक स्थिति यह बनती जा रही है कि परीक्षाओं के दौरान प्रश्नपत्र सही से हल नहीं कर पाने और कई बार परीक्षा की समुचित तैयारी नहीं होने पर भी कुछ मामलों में अब कुछ विद्यार्थी हताश होकर जान देने लगे हैं। दसवीं या बारहवीं कक्षा के परीक्षा परिणाम हों या फिर मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाएं, ऐसी परीक्षाओं में सफल नहीं होने के कारण कुछ छात्र अब आत्महत्या जैसा हृदय विदारक कदम उठाने लगे हैं।
युवाओं में आत्महत्या की यह बढ़ती प्रवृत्ति अब सभी को गंभीर चिंतन-मनन के लिए विवश करने के लिए पर्याप्त है। विद्यार्थियों की आत्महत्या के आंकड़ों पर नजर डालें तो बहुत चिंताजनक तस्वीर उभरकर सामने आती है। राज्यसभा में दी गई एक जानकारी के अनुसार 2018 से 2023 के बीच पांच वर्षों की अवधि में आइआइटी, एनआइटी, आइआइएम जैसे देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में ही इकसठ छात्रों ने आत्महत्या की, जिनमें तैंतीस छात्र आइआइटी के थे।
देश के युवा वर्ग और खासकर अठारह वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती यह प्रवृत्ति बेहद चिंताजनक है। शिक्षा और करिअर में गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता और शिक्षकों की बढ़ती अपेक्षाओं के चलते विद्यार्थियों पर पढ़ाई का बढ़ता अनावश्यक दबाव इसका सबसे बड़ा कारण है, जिसने उनके समक्ष विकट स्थिति पैदा कर दी है। कई बच्चे इस दबाव को झेल नहीं पाते, जिसके चलते उनमें अवसाद पनपता है।
अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि परीक्षाएं नजदीक आने के साथ ही विद्यार्थियों में चिंता और अवसाद बढ़ने लगता है और कुछ मामलों में यही बढ़ता अवसाद उनके आत्महत्या करने का कारण बन जाता है। इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में तो सीटें बहुत होने के कारण अब बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धा होने लगी है, वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे शिक्षण संस्थानों में सामान्य स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए भी अब जबरदस्त मारामारी होने लगी है।
ऐसे में विद्यार्थी अपनी शिक्षा और भविष्य को लेकर गहरे असमंजस में रहते हैं। किसी को करिअर या नौकरी की चिंता है तो कोई पारिवारिक वित्तीय संकट से जूझ रहा है। परीक्षा में अपेक्षा से कम या रैंक मिलने पर कुछ बच्चे आत्महत्या का मार्ग चुन लेते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि अंकों की दौड़ में पिछड़ जाने के कारण उनका भविष्य अंधकारमय हो गया है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े देखें तो जहां 2020 में देशभर में कुल 12,526 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की, वहीं 2021 में यह आंकड़ा बढ़कर 13,089 हो गया। आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों में 56.54 फीसद लड़के और 43.49 फीसदी लड़कियां थीं। अठारह साल से कम आयु के 10,732 किशोरों में से 864 ने तो परीक्षा में विफलता के कारण मौत को गले लगा लिया।
2021 के एनसीआरबी के आंकड़े समाज को झकझोरने के लिए पर्याप्त हैं। यों आत्महत्या की यह समस्या अब केवल विद्यार्थियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि देश में आत्महत्या के मामलों में जिस प्रकार साल दर साल उछाल आ रहा है, वह समूचे समाज के लिए गंभीर चिंता का कारण बन रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया में हर चालीस सेकंड में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है। यानी प्रतिवर्ष दुनियाभर में करीब आठ लाख लोग आत्महत्या के जरिए अपनी जीवनलीला खत्म कर डालते हैं, जिनमें से बड़ी संख्या में आत्महत्या के मामले 15 से 29 वर्ष के लोगों के बीच होते हैं, जबकि आत्महत्या का प्रयास करने वालों का आंकड़ा इससे बहुत ज्यादा है।
डब्लूएचओ के आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में 79 फीसद आत्महत्या निम्न और मध्यवर्ग वाले देशों के लोग करते हैं और इसमें बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की होती है, जिनके कंधों पर किसी भी देश का भविष्य टिका होता है। बीते वर्षों में दुनियाभर में खुदकुशी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं, लेकिन भारत में आत्महत्याओं का आंकड़ा काफी चिंताजनक है।
लोगों में अवसाद निरंतर बढ़ रहा है, जिसके चलते ऐसे कुछ लोग आत्महत्या जैसा हृदयविदारक कदम उठा बैठते हैं। जीवन से निराश होकर आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति गंभीर चिंता का सबब बन रही है। मनोचिकित्सकों के अनुसार जब भी कोई व्यक्ति या युवा गहरे मानसिक तनाव से जूझ रहा होता है तो उसके व्यवहार में पहले की अपेक्षा कुछ बदलाव देखने को मिलते हैं।
ऐसे में आसपास मौजूद लोगों और परिजनों की यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है कि वे ऐसे व्यक्ति या युवा को भावनात्मक, मानसिक या शारीरिक, जैसी भी जरूरत हो, सहयोग करें, उसका मनोबल बढ़ाने का प्रयास करें, ताकि वह खुद को अकेला महसूस न करे। मनोचिकित्सकों के अनुसार आत्महत्या करना काफी गंभीर समस्या है और आत्महत्या करने के पीछे अधिकांशत: अवसाद को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, जो ऐसे करीब नब्बे फीसद मामलों का प्रमुख कारण है। आत्महत्या करने का विचार किसी इंसान के अंदर तब पनपता है, जब वह किसी मुश्किल से बाहर नहीं निकल पाता।
जहां तक विद्यार्थियों की बात है तो उनके बीच बढ़ते आत्महत्या के मामलों के लिए कहीं न कहीं अभिभावक भी दोषी हैं। दरअसल, अधिकांश मामलों में देखने को मिलता है कि ज्यादातर माता-पिता या अभिभावक अपने बच्चों की क्षमता और अभिरुचि को सही ढंग से नहीं समझ पाते और उनसे जरूरत से ज्यादा अपेक्षाएं रखते हुए परीक्षा के समय भी उनकी मनोदशा से अनभिज्ञ रहते हैं।
कई मामलों में ऐसे छात्र जरूरत से ज्यादा मानसिक दबाव के कारण गलत कदम उठा बैठते हैं। ऐसे मामलों में विद्यार्थियों को मानसिक दबाव से बाहर निकालने में सबसे बड़ी भूमिका अभिभावकों, करीबी लोगों और शिक्षकों की ही हो सकती है, जो उन्हें सहानुभूतिपूर्वक समझाएं कि किसी भी असफलता से उनके जीवन का निर्धारण नहीं होता और हमारा यह जीवन एकमात्र ऐसी चीज है, जिसे हम दोबारा नहीं पा सकते। उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित करें कि वे सकारात्मक सोच के साथ अपनी क्षमतानुसार मेहनत करके भी सफलता की बुलंदियों को छू सकते हैं।
किसी राजनीतिक दल के लिए विद्यार्थियों की आत्महत्याएं भले ही कोई चुनावी मुद्दा न हों, लेकिन समाज के लिए ये आत्महत्याएं चिंतनीय और दुर्भाग्यपूर्ण अवश्य हैं। हालांकि सरकार, सामाजिक संस्थाओं और शिक्षण संस्थानों की ओर से हाल के वर्षों में विद्यार्थियों की काउंसलिंग के साथ उनकी पढ़ाई में मदद करने और जरूरत महसूस होने पर चिकित्सीय परामर्श मुहैया कराने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन इन प्रयासों में और तेजी लाने की जरूरत है। विद्यार्थियों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता लाकर आत्महत्या जैसे मामलों को कम किया जा सकता है। किसी भी युवा के मन में आत्महत्या का विचार आए ही नहीं, ऐसा वातावरण तैयार करना परिवार के साथ-साथ समाज की भी बड़ी जिम्मेदारी है।