डॉ. वीर सिंह
पूरी दुनिया कोविड-19 विश्वव्यापी महामारी से त्रस्त है। कोरोनावायरस ने जैसे पूरी दुनिया को जाम कर दिया हो! धरती के सारे पेड़-पौधों, जंतुओं और सूक्ष्मजीवियों को अपने नियंत्रण में रखने वाली मानव प्रजाति ने एक सूक्ष्मतम जीव के सामने घुटने टेक दिए हैं। जीव भी वास्तव में नहीं, केवल एक जीव और निर्जीव के बीच का अर्ध-जीव। जिस मानव जीव की अनुकम्पा के बिना, एक बीज भी अंकुरित नहीं हो सकता, वह स्वयं एक वायरस की अनुकम्पा पर निर्भर हो गया है। कोरोनावायरस अचानक ही अवतरित नहीं हो गया था। वह धरती पर पहले से ही विद्यमान था, लेकिन मानव प्रजाति से दूर। आदमी ने तो उसे “आ कोरोना मुझे मार” कहकर अपनी बस्तियों में बुला लिया है।

कोविड-19 के जिन पहलुओं पर दुनिया का ध्यान नहीं गया, वे हैं जैवविविधता विनाश और जलवायु संकट। अब यह तेजी से सामने आ रहा है कि कोरोना के तार जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन से जुड़े हैं। अभी गर्मी के मौसम ने आहट भरी ही थी कि उत्तराखंड में कुमाऊं के जंगल आग की भेंट चढ़ने लगे, जो जलवायु परिवर्तन की एक छोटी-सी झलक है। और इसी के साथ प्राकृतिक विविधता का विनाश और महामारी की विनाशलीला में विस्फोट। एड्स, इबोला, सार्स आदि भयंकर वायरस-जनित रोगों की तरह ही कोविड-19 के बढ़ते वेग को भी जैव विविधता और जलवायु संकटों से जोड़ा जा रहा है।

मानव जाति त्वरित गति से प्राकृतिक संसाधनों को छिन्न-भिन्न कर रही है और जीवन को संवर्धित करने और अक्षुण्ण रखने वाले पर्यावरण को नष्ट कर रही है। वर्ष 1980 से 2000 के बीच 10 करोड़ हेक्टेयर से अधिक उष्णकटिबंधीय वनों का सफाया हो गया था और 85% से अधिक आर्द्रभूमि औद्योगिक युग में नष्ट हो चुकी है। ऐसा करने से मनुष्य अनेक रोगजनक जंतुओं के संपर्क में आते हैं और फिर जनसम्पर्क के माध्यम से जंगली जंतुओं के अनेक असाध्य रोग मानव समाज में स्थानांतरित हो जाते हैं। प्राकृतिक वनो में जंगली जानवर एवं जलाशयों में जलचर प्रायः ऐसे वातावरण तक सीमित रहते हैं जिनमे मनुष्य पूरी तरह से अनुपस्थित रहते हैं, या छोटी-छोटी अलग-थलग बस्तियों में रहते हैं।

लोग अनेक तथाकथित विकास कार्यो, जैसे सड़क निर्माण, होटल, रिसोर्ट, शहरीकरण, औद्योगीकरण, या खेती के लिए वन उजाड़ते हैं, जंगलों में जाकर मनोरंजन, मांस, खाल, फर आदि के लिए शिकार करते हैं, दुर्लभ जंतुओं पर शोध करने के लिए उन्हें प्रयोगशाला में लाते हैं। दुर्लभ जंगली जानवरों को कई देशों में मंडियों में लाया जाता है और वहां उनका सीधे अथवा मांस के लिए व्यापार किया जाता है। इस तरह, आदमी और समाज उन जीव-जंतुओं के संपर्क में आता है जो तरह तरह के विषाणुओं, जीवाणुओं और अन्य रोगाणुओं को पालते हैं और वे सारे रोगाणु इस तरह मानव समाज का अभिन्न हिस्सा बनकर महामारी को जन्म देते हैं। इसके अतिरिक्त पशुओं के मांस का आयात-निर्यात दुनिया में चल रहा एक बहुत बड़ा और अनैतिकता से भरा धंधा है, जिसके माध्यम से भी अनेक तरह के रोगाणु मानव समाज में फैलते हैं।

गंभीर तीव्र श्वसन सिंड्रोम (सार्स) की महामारी चमगादड़, मांस और उनसे उपभोक्ताओं की निकटता के कारण बढ़ी। वर्ष 2007 में एक वैज्ञानिक आलेख में कहा गया था कि दक्षिण चीन में जंगली स्तनधारियों, जैसे घोड़े की नाल के सामान चमगादड़ को खाने की संस्कृति के साथ सार्स-कोरोना जैसे वायरस के एक बड़े भंडार
की उपस्थिति एक टाइम बम है। और इस बम का विस्फोट कोविड-19 के रूप में नवंबर 2019 में चीन में हुआ।

वन्य जंतुओं के उपभोग और आयात-निर्यात के दो प्रमुख परिणाम हैं। सबसे पहले वे हमें दुर्लभ संक्रामक एजेंटों के संपर्क में रखकर एक महामारी का खतरा बढ़ाते हैं। रोगाणु प्रजाति-विशिष्ठ होते हैं। अगर उन रोग-जनित जानवरों को उन्हीं के परिवेश से बाहर न किया जाए, अगर उनके अस्तित्व का मोल समझा जाए, यदि
जैव विविधताओं से सराबोर पारिस्थितिकी तंत्रों को अक्षुण्ण रखा जाए, यदि जंगली जानवरों की तस्करी और उनका स्वाद मनुष्य की जीभ पर न लगे, तो निश्चित ही प्राकृतिक परिवेश में पड़े जीवाणु-विषाणु मानव समाज में महामारी बनकर नहीं उभरेंगे। रोगजनक प्राणियों से जुड़े खतरे सीमित नहीं हैं। जैव विविधता विनाश के साथ वे बढ़ते जाएंगे। इबोला और सार्स के बाद कोविड अंतिम नहीं है। महामारियों की व्यापकता जैव विविधता के विनाश के अनुक्रमानुपाती है। यह सदैव याद रखना चाहिए कि दो-तिहाई से अधिक उभरते रोग जानवरों से आते हैं, और उनमे भी अधिकांशतः जंगली जानवरों से।

दूसरा पहलू है, वन्य जंतुओं को पकड़ना और उनका व्यापार करना जो वन्य जैव विविधता पर बड़ा भार है। कोविड-19 महामारी से प्रकाश में आए पैंगोलिन के साथ ऐसा ही है। इस चींटीखोर छिलके जैसे आवरण वाले स्तनपायी की आठ प्रजातियां, जो अफ्रीका और एशिया में पाई जाती हैं, का धड़ल्ले से व्यापार चलता है और उसका मांस खाया जाता है। पैंगोलिन के व्यापर में लगे और उसका मांस खाने वाले लगभग 2 लाख लोगों की मौत प्रतिवर्ष हो जाती है।

जलवायु परिवर्तन दो तरह से आदमी के लिए महामारियों के द्वार खोल रहा है। एक तो पारिस्थितिक तंत्रों की जैव विविधता को सीमित करके और दूसरे वन्य जीवों को अधिक ठन्डे और अनुकूल जलवायु क्षेत्रों की ओर पलायन को बाध्य करके। जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे और बाढ़ का अनिष्टकारी कुचक्र पैदा हुआ है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्रों की जैव विविधता का अत्याधिक ह्रास हो रहा है। बहुत सारे वन्य जीव तो इस कुचक्र का सीधे ही शिकार हो रहे हैं, और बहुत से मानव बस्तियों के निकट पहुंचने को बाध्य होते हैं। उनके बढ़ते पलायन से भी उन पर पल रहे विषाणुओं-जीवाणुओं के मानव समाज में प्रविष्ट करने के जोखिम बढ़ जाते हैं।

इस प्रकार मानव समाज दोहरे खतरे में है: हम उभरते रोगों को और सक्षम कर रहे हैं और जीवनाधार एवं रोग-नियंत्रक वातावरण सृजन में आवश्यक प्राकृतिक जैव विविधता को नष्ट करने में संलग्न हैं। नए रोगों के उद्भव की परिस्थितियां और भी जटिल हो सकती हैं; जैसे जीका और डेंगू वायरस अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम
से प्रसारित होते हैं। विश्व स्वस्थ्य संगठन की “वन हेल्थ” पहल पर्यावरण और जैव विविधता के सम्बन्ध में मानव स्वास्थ्य के मुद्दे के प्रबंधन की पक्षधर है। इसके तीन मुख्य उद्देश्य हैं: रोगजनक जंतुओं से फैलने वाले रोगों का नियंत्रण, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना, और एंटीबायोटिक प्रतिरोध से लड़ना।

यह पहल हमें स्मरण कराती है कि हम एक कृत्रिम कोकून में नहीं रह सकते, हमें प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों में अनावश्यक घुसपैठ नहीं करनी चाहिए, पारिस्थितिक तंत्रों का रूपांतरण, जहाँ तक संभव हो, नहीं करना चाहिए, और जैव विविधता का सम-स्थान संरक्षण होना चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन की पहल के
तीन लक्ष्यों में से दो – खाद्य सुरक्षा और रोगजनक जंतु से फैलने वाले रोगों का नियंत्रण – सीधे वर्तमान कोविड-19 संकट से सम्बंधित हैं। हमें विदेशी प्रजातियों के आयात से बचना चाहिए और पालतू पशुओं को अप्राकृतिक चारा भी नहीं खिलाना चाहिए। स्मरण हो कि कई वर्ष पूर्व फैली पागल गाय (मैड काऊ) जैसी
बीमारियों का कारण यही अप्राकृतिक चारा था।

कोविड-19 के बाद की दुनिया कैसी होगी? इस प्रश्न की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ रही है। इतना निश्चित है कि कोविड-19 के बाद की दुनिया कोविड काल की दुनिया से भिन्न होगी। अगर हम अपनी “अगली दुनिया” को स्वस्थ और प्रफुल्लता से भरा देखना चाह्ते हैं तो जैव विविधता को संपूर्ण सम्मान दें। जैव विविधता के संरक्षण से बड़ा कोई तत्कालिक और दीर्घकालिक लाभ नहीं।

लेखक जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक हैं।