कोई भी समाज अपराध शून्य नहीं है। समस्या तब विकराल रूप लेती है जब अपराध समाज की ऊपरी सतह पर तैरने लगता है। लोगों को लूटने वाले गुंडे कहीं से भी आ सकते हैं। जब अपराधी ‘वर्दीवाला’ बनकर आता है तो यह राज्य की साख पर खतरा होता है। वर्दीवाले अपराधी राज्य की शक्तियों के प्रतीकों का प्रयोग कर आम जनता को फर्जीवाड़े का शिकार बनाते हैं। राज्य की साख के लिए शर्मनाक हालत यह है कि जनता उसकी संस्थाओं से निर्भय नहीं है बल्कि उसे यह भय है कि ये संस्थाएं उसके साथ कुछ भी कर सकती हैं। उस पर लगे आरोपों को रफा-दफा करने के लिए पैसे का लेन-देन कर सकती हैं। ‘डिजिटल अरेस्ट’ को अपराधी इसलिए अस्तित्व में ला पाए कि जनता के जेहन में राज्य की संस्थाओं का इकबाल बुलंद नहीं है। राजनीतिक उपयोग व दुरुपयोग के द्वंद्व में जनता के बीच यह छवि बैठ गई कि ये संस्थाएं उसके साथ कुछ भी कर सकती हैं। जागरूकता के साथ आम जनता खुद इस समस्या पर काबू पाएगी लेकिन राज्य व उसकी शक्तियों की साख पर उठे सवालों के जवाब मांगता बेबाक बोल

आप हिरासत में हैं…
हिरासत…आम जनता के लिए एक वैधानिक शब्द है। हिरासत राज्य की शक्ति का प्रतीक है। अब नया शब्द है, ‘डिजिटल अरेस्ट’। ‘डिजिटल अरेस्ट’ करने की वैधानिक न्यायिक अवधारणा नहीं है। राज्य की शक्ति के समांतर यह शब्द अपराध की दुनिया का है। एक मां के पास फोन आता है कि उसकी बेटी देह व्यापार में पकड़ी गई है। इतने पैसे जमा कराओ तो छूट जाएगी। पैसे जमा करना तो दूर की बात इस खबर को सुनने के बाद ही तबीयत बिगड़ने से मां की मृत्य हो गई। न जाने ऐसे कितने उदाहरण सामने आ गए कि ‘डिजिटल हिरासत’ में बंधक बना कर परेशान किया गया, पैसे स्थानांतरित करवाए गए।

इंटरनेट ने एक समांतर संसार रच दिया है

ब्रह्मांड के इतर इंटरनेट ने एक समांतर संसार रच दिया है। आज इसका जाल उतना ही विस्तृत है जितना हमारे सिर के ऊपर दिखता आकाश। हमारे जीवन में पंचतत्त्व की भूमिका एक तरफ है और इंटरनेट की भूमिका दूसरी तरफ। इसका संजाल भी अंतरराष्ट्रीय है। सफेदपोश समाज जितनी तीव्रता से इंटरनेट को अपनाता है उससे चौगुनी तीव्रता से अपराध की नकाबपोश दुनिया इसे अपना लेती है। कोई भी समाज अपराध शून्य नहीं होता। अपराध की मौजूदगी मुख्यधारा पर हावी हो जाती है तब सभी होशमंद होते हैं। ये भी लुटा, वो भी लुटा अब मेरी बारी वाले डर के बाद ही किसी तरह की सरकारी तैयारी होती है।

आर्थिक जालसाजी के अपराध पहले भी होते थे। एक समय नकली नोट बड़ी समस्या होते थे। बैंक के क्षेत्र में क्रेडिट कार्ड की नकल बनने लगी। ईमेल से लेकर वाट्सऐप तक ‘हैक’ होने लगे। जिस अनुपात में साइबर अपराध बढ़े उस अनुपात में हमारी सुरक्षा एजंसियां अशिक्षित रहीं। फोन बैंकिंग से भी आम लोग लुटते रहे और एजंसियां सुरक्षात्मक आवरण देने में नाकाम सी रहीं। मंत्री से लेकर नौकरशाह तक हर मंच पर गौरव गान गाते रहे कि हमारे यहां रेहड़ी-पटरी वाला भी इंटरनेट भुगतान लेता है। जब यही आम आदमी साइबर अपराधियों के हाथों लुटता है तो फिर उनकी सुनवाई में एजंसियों का प्रदर्शन निराशाजनक के खाते में ही आता है।

भारतीय कानून में अभी ‘डिजिटल अरेस्ट’ की अवधारणा नहीं है

इन आर्थिक अपराधों से जूझ रही जनता के सामने नई मुसीबत आई ‘डिजिटल अरेस्ट’ की। भारतीय कानून में अभी ‘डिजिटल अरेस्ट’ की अवधारणा नहीं है पर अपराध जगत सौ कदम आगे बढ़ गया। चिंताजनक यह है कि इस अपराध में खुद को राज्य का प्रतिनिधि बना कर अपराध किया जाता है। अपराधी खुद को राज्य का प्रतिनिधि होने का दावा करता है। राज्य एजंसी का रुतबा ही उसे आम अपराधियों से अलग कर देता है।

इस अपराध में दोष राज्य का भी है जिसने पिछले दिनों एजंसियों की यह छवि बनाई कि वह कुछ भी कर सकती है। किसी भी राज्य की पुलिस कहीं भी जा सकती है, दो राज्यों की शक्तियों के बीच तकरार हो सकती है। इतनी सक्रिय एजंसियां इंटरनेट से ही अपराध सुलझाने लगी हैं, आम लोग यह भरोसा आसानी से कर लेते हैं।

इस अपराध में स्थानीयता की भी मजबूरी नहीं है। अगर दिल्ली में कोई अपराध होता है तो आप स्थानीय पुलिस से संपर्क कर सकते हैं। आनलाइन फर्जीवाड़े में आपके सामने किसी भी राज्य की कथित एजंसी नमूदार हो सकती है। इसमें सिर्फ पुलिस ही नहीं सीबीआइ, ईडी, स्वापक नियंत्रण ब्यूरो के नाम पर भी लोगों में भय पैदा किया जा रहा है।

एजंसियों का उपयोग और दुरुपयोग का आरोप दोनों चरम पर है

सवाल यह है कि आखिर अपराधियों का इसमें फायदा क्या है? फायदा यही है कि जब चंगुल में फंसा व्यक्ति राज्य की एजंसी से खौफजदा हो जाता है तो सीबीआइ, ईडी के ये फर्जी अधिकारी समझौता करने पर उतर आते हैं। इतने पैसे दो हम छोड़ देंगे। मामला यहीं रफा-दफा कर देंगे। इस चरण पर हम बात करते हैं सरकारी एजंसियों और उनकी साख की। अभी इन एजंसियों का उपयोग और दुरुपयोग का आरोप दोनों चरम पर है। इन एजंसियों की आम लोगों के बीच साख यह है कि इनके चंगुल में फंसने से बेहतर है मामले को किसी तरह निपटा दिया जाए।

आम आदमी को पता है कि उसने मादक पदार्थों की कोई तस्करी नहीं की है, उसने किसी अवैध धन का लेन-देन नहीं किया है। अफसोस, उसके अंदर यह भरोसा नहीं है कि अगर उसने कुछ किया ही नहीं है तो इस देश की कोई एजंसी उसे झूठे मामले में नहीं फंसा सकती। बल्कि उसे इस बात का भय है कि उसके साथ कभी भी, कहीं भी, कोई भी, कुछ भी कर सकता है। संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार एक डर के रूप में उसके साथ जुड़ता जाता है।

‘डिजिटल अरेस्ट’ कोई समस्या ही नहीं होती अगर इस देश का हर इंसान किसी भी तरह के भ्रष्टाचार को लेकर निडर रहता। यूपीआइ भुगतान को लेकर मगन संस्थाओं को इस बात की फिक्र ही नहीं है कि उसने आम आदमी के डाटा की सुरक्षा के लिए कोई मजबूत कदम ही नहीं उठाया है। आधार कार्ड नंबर को जीवन से मरण तक हर काम के लिए जरूरी बना दिया गया लेकिन उस नंबर की सुरक्षा की जरूरत अभी तक पूरी नहीं हुई है। अक्सर ऐसे मामले आते हैं जहां आम आदमी का डाटा बाजार में बिक रहा होता है। पिछले दिनों राष्ट्रीय राजधानी स्थित अखिल भारतीय आयुर्र्विज्ञान संस्थान की वेबसाइट लंबे समय तक हैकरों के हवाले रही। आम जनता सहित अति-विशिष्ट व्यक्तियों के डाटा के साथ अपराधियों ने क्या किया यह हम आज तक नहीं जान पाए हैं।

यह बिल्कुल भी सामान्य नहीं है कि देश की साख मानी जाने वाली एजंसियों के नाम पर लोगों को बंधक बना लिया जाए, उनके डाटा के आधार पर उन्हें समझौता करने के लिए मजबूर किया जाए। इस तरह की घटनाओं में देखा गया है कि जैसे ही लोग हिम्मत करके सामने वाले कथित वर्दीधारियों से निजी नंबर मांगने लगते हैं, अन्य तरह के शक करते हैं तो वो बातचीत की दिशा बदल देते हैं, या फिर जैसे आए थे वैसे ही गायब हो जाते हैं। मुश्किल है कि इतना निडर होने के पहले इस देश के लोगों के करोड़ों रुपए अपराधियों के खजाने में चले गए।

ऐसे बढ़ते अपराध के बाद पुलिस एजंसी सलाह देती दिख रही है कि नए कानून में आनलाइन समन भेजने का प्रावधान है। आनलाइन समन आने पर जनता स्थानीय पुलिस थाने में जाकर पता करे कि यह सच है या नहीं? यानी ‘आनलाइन’ समन देखने के बाद आप ‘आफलाइन’ पता कीजिए कि सच है या नहीं। ऐसे आनलाइन का क्या फायदा?

साइबर अपराध के संजाल में ‘डिजिटल अरेस्ट’ राज्य की साख के साथ खिलवाड़ है। यह राज्य के प्रतीकों के साथ भय का आपराधिक कारोबार है। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि गैरकानूनी के लिए एक कानूनी शब्द इजाद कर लिया गया। जागरूकता के साथ इसका गुबार जल्द ही कम हो जाएगा लेकिन जितने लोग लुटे उनका क्या? सबसे अहम सवाल कि राज्य की एजंसियों की साख के साथ आनलाइन लूटपाट के बाद राज्य और एजंसियों का रवैया क्या होगा? यहां दो पक्षों के साथ अपराध हुआ है। जनता राज्य की एजंसी के पास जाकर गुहार लगाएगी हमारे साथ अपराध हुआ। राज्य और उसकी एजंसियां कहां जाएंगी? वर्दीवाले गुंडे सादे कपड़ों वाले अपराधियों से ज्यादा घातक हैं, राज्य और उसकी साख के लिए।