भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का रास्ता हो सकती है। मगर राजनीति में भक्ति या नायक पूजन निश्चित रूप से पतन और अंतत: तानाशाही की ओर ले जाते हैं। वैश्वीकरण के इस समय में हावर्ड विश्वविद्यालय ने अमेरिकी प्रशासन को संदेश दिया कि वह नायक पूजन नहीं करेगा। अमेरिकी अनुदान के बरक्स हावर्ड ने अपनी स्वायत्तता को चुना। हावर्ड ने कहा कि यह विश्वविद्यालय तय करेगा कि उसे क्या और कैसे पढ़ाना है। जब हावर्ड ट्रंप को चेतावनी दे रहा था कि यहां से आठ राष्ट्रपति निकले हैं उस वक्त भारत में विश्वविद्यालय नायक पूजन में व्यस्त दिख रहे हैं। यहां के शिक्षक प्रतिनिधि से लेकर जन प्रतिनिधि तक देश के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय को देशद्रोह का गढ़ बताते नहीं थक रहे हैं। जब मौजूदा दौर में राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते विश्वविद्यालय विष-विद्यालयों में तब्दील हो रहे तब हावर्ड विश्वविद्यालय ने डोनाल्ड ट्रंप जैसे स्वयंभू सर्व-शक्तिमान की भी हदबंदी कर दी। हदबंदी के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर बुलंद करने के बाद हावर्ड की निखरी हस्ती पर बेबाक बोल

नाम अजय पाल और स्थान दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय। अजय पाल जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में वाम संगठन एसएफआइ की तरफ से उम्मीदवार हैं। जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में संस्थान के अलग-अलग विचारधाराओं के छात्र खड़े हैं पर अजय पाल एक खास कारण से चर्चा में हैं। फिलहाल इस चुनाव पर रोक लगा दी गई है। बात यहां अजय पाल की।

पाल की पहचान भूतपूर्व अग्निवीर की है। पाठकों को याद होगा कि जब सेना में स्थायी नौकरी के बदले ‘अग्निवीर’ योजना को लाया गया था तो बिहार, उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में इसका तीव्र विरोध हुआ था। प्रदर्शनों से थक-हार कर बेरोजगारी से त्रस्त युवा अग्निवीर के लिए आवेदन करने के लिए मजबूर हुए।

अजय पाल ने अग्निवीर के रूप में अपनी नौकरी छोड़ने और जेएनयू में दाखिले की वजह बताते हुए पत्रकारों से कहा-अग्निवीर के जरिए समाज के बड़े वर्ग को अधर में छोड़ दिया और अग्निवीर में हिस्सा लेने वाले लोगों को ये भी पता नहीं रहता है कि चार साल बाद क्या होगा। जैसे मैंने यहां नेट की है और अगर मैं जेआरएफ करता हूं तो पीचएडी तक 40-45 हजार मिलेगा। ये उससे ज्यादा है और पीएचडी के बाद कई अवसर भी रहेंगे। अग्निवीर में चार साल बाद जहां से शुरुआत की थी वहां पहुंच जाएंगे।

जेएनयू परिसर में आज जब अजय पाल सस्ती शिक्षा की जरूरत बताते हुए अग्निवीर के खिलाफ बोल रहे हैं तो न उन्हें सड़कों पर घसीटा जा रहा है और न पुलिस के डंडे पड़ रहे हैं। जेएनयू परिसर में खड़े होकर उन्हें सिर्फ इस बात की चिंता नहीं है कि कल उनका निजी रूप से क्या होगा? उन्हें छात्रवृत्ति के रूप में अग्निवीर की नौकरी से ज्यादा पैसे मिल सकते हैं। अजय पाल मांग कर रहे हैं कि जेएनयू जैसी अच्छी और सस्ती शिक्षा दुनिया में हर किसी के लिए बची रहे।

जब डोनाल्ड ट्रंप हावर्ड विश्वविद्यालय को एक मजाक बता रहे थे, उसे मूर्खता सिखाने वाला संस्थान करार दे रहे थे तब डफली बजाते जेएनयू के अजय पाल की निर्भीकता दिखती है। निर्भीकता सिर्फ सीमा पर और जवानों में नहीं शिक्षा संस्थानों में भी दिखनी चाहिए। यह निर्भीकता देख हम समझ सकते हैं कि जब लोकतांत्रिक देशों की सत्ता लोकतंत्र से ज्यादा शक्तिशाली दिखने लगती है तो वह जेएनयू और हावर्ड जैसे विश्विद्यालयों से क्यों नफरत करने लगती है। नफरत की वजह यही कि ऐसे ही शिक्षण संस्थानों से भीमराव आंबेडकर जैसे लोग निकलते हैं जो समाज में सबको बराबरी का संविधान देते हैं।

आंबेडकर ही राजनीति में नायक पूजन को लेकर चेतावनी भी देते हैं। आंबेडकर ने आगाह किया था कि राजनीति में नायक पूजन यानी भक्ति पतन से लेकर अंतत: तानाशाही की ओर ले जाती है। हमारा सवाल है कि इस तानाशाही की प्रवृत्ति की पहचान कहां से होगी? उसी जगह यानी जेएनयू से जहां अजय पाल सस्ती शिक्षा की जरूरत बताते हुए अग्निवीर के बारे में पूछते हैं कि चार साल के बाद क्या करेंगे?

जेएनयू सत्ता से सवालरत छात्र आंदोलनों के लिए जाना जाता रहा है। प्रतिरोध को देशद्रोह समझने वाली सत्ता शक्तिशाली होते ही सबसे पहले जेएनयू जैसे संस्थान को कमजोर करने की कोशिश करने लगी। शक्तिशाली सरकार में दो शक्तिशाली मंत्रालयों के प्रधान जेएनयू के विद्यार्थी रहे हैं। इसके बावजूदबड़े-छोटे नेता से लेकर गली-नुक्कड़ में बहस करते लोग जेएनयू को देशद्रोह का अड्डा घोषित करने लगे।

कड़वी दवाई, टैक्स से कमाई के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने जब हावर्ड के खिलाफ चढ़ाई की तो हम भारतीयों को सब कुछ एक वैसा सिनेमा देखने जैसा लगा जो किसी पुराने सिनेमा की पटकथा को चुरा कर बना लिया जाता है। नोबेल पुरस्कार विजेताओं का गढ़ रहे हावर्ड को उसके राष्ट्रपति एक मजाक बता कर उसका अनुदान रोकने की बात कह रहे थे। ट्रंप हावर्ड के प्रशासन की स्वायत्तता छीनना चाह रहे हैं। अमेरिकी प्रशासन उन विद्यार्थियों की सूची मांग रहा है जो सरकार के कामों का विरोध कर रहे हैं। अमेरिकी प्रशासन हावर्ड की नियुक्तियों में दखल चाहता है।

हावर्ड ने ट्रंप प्रशासन के अनुदान के आगे स्वायत्तता के स्वाभिमान को चुना। हावर्ड के अध्यक्ष एलन गारबर ने साफ तौर पर कहा कि सत्ता में रहने वाली कोई भी राजनीतिक पार्टी हमें निर्देश नहीं दे सकती है कि हमें क्या पढ़ाना और कैसे पढ़ाना है। किन छात्रों को दाखिला देना है और कैसे नियुक्ति देनी है।

जब हावर्ड के निदेशक कह रहे थे कि हम अमेरिकी संविधान में मिले स्वतंत्रता के अधिकार को गिरवी नहीं रखेंगे उस वक्त भारत के विश्वविद्यालयों की तुलना कर ली जाए। हावर्ड जब ट्रंप को बता रहा था कि यहां से आठ राष्ट्रपति निकले हैं उसी वक्त भारत के सिनेमा में एक मौलिक दृश्य दिख गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज की प्राचार्य सीमेंट-ईंट से बने कालेज परिसर के एक कक्ष की दीवारों की अपने हाथों से गोबर से पुताई कर रही थी।

दीवारों की गोबर से पुताई करते वक्त वीडियो बनवाने से भी उन्हें परहेज नहीं था। उनकी उम्मीद यही थी कि गोबर से पुताई का यह वीडियो जो एक शोध का हिस्सा है, सत्ता के शिखर तक पहुंचे और उनकी गिनती देश के श्रेष्ठ अकादमिकों में होने लगे। आगे विश्वविद्यालय में किसी ऊंचे पद की दावेदारी के लिए इस तरह के कथित शोधजरूरी अहर्ता दिखने लगे हैं। लंबे समय से भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में इस तरह के शोध करने की होड़ मच गई है। प्राचार्य साहिबा का उत्साह देख डर लग रहा कि ऐसे शोध के लिए गोबर के नमूनों की कमी न पड़ जाए और बाजार में नकली गोबर बिकने का आरोप न लग जाए।

किसी भी देश में विश्वविद्यालय वह पैमाना है जिससे उसकी बौद्धिक इकाई को नापा जाता है। जिस तरह देश में अन्य चीजों के कारखाने जरूरी होते हैं उसी तरह विश्वविद्यालय बौद्धिक चेतना के निर्माण का कारखाना होते हैं। विश्वविद्यालय में मूल शब्द ही विश्व है। यानी इसका पैमाना वैश्विक होगा, यहां के विद्यार्थियों की सोच वैश्विक होगी।

जनता के द्वारा बनी सरकारों की सबसे निकृष्ट सोच वह मानी जाती है जब कहा जाने लगता है कि कोई सरकारी पैसे की तनख्वाह ले कर सरकार के खिलाफ कैसे बोल सकता है। जैसा कि ट्रंप हावर्ड को कह रहे हैं कि अमेरिकी सरकार से अनुदान लेकर वहां के विद्यार्थी और शिक्षक अमेरिकी सरकार के खिलाफ कैसे बोल सकते हैं। विश्वविद्यालय यही सिखाता है कि वह कथित सरकारी पैसा किसी चार साल व अधिकतम दो बार की मियाद वाले राष्ट्रपति का पैसा नहीं है। वह पैसा अमेरिका की जनता का है जिसे खर्च करने का अधिकार महज चार साल के लिए डोनाल्ड ट्रंप की सरकार को मिला है।

याद करें, ट्रंप की पिछली पारी में सत्ता हस्तांतरण के वक्त क्या हुआ था। वाइट हाउस में जो हिंसा हुई थी वह अमेरिकी लोकतंत्र के लिए चिंताजनक थी। आज जिस तरह ट्रंप का सत्ता में आना सिर्फ अमेरिकी नागरिकोंका मामला नहीं रह गया है, उसी तरह ज्ञान-विज्ञान के केंद्र विश्वविद्यालय संपूर्ण मानव सभ्यता का मसला है।

सबसे आखिरी बात। आज ट्रंप के लिए सबसे बड़ी परेशानी चीन क्यों बना हुआ है? ट्रंप के कर को कई गुणा बढ़ाने के बावजूद वह भारी क्यों पड़ रहा है? चीन सभी चीजों के साथ अपने विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों पर खर्च कर रहा है। सिर्फ बाजार और कर का गुणाभाग करके अमेरिका कितने दिनों तक टिका रहेगा जब चीन ज्ञान, विज्ञान व शोध-अनुसंधान में आगे रहेगा। अगर विश्व में टिकना है तो अपने विश्वविद्यालयों को बचाना और आगे बढ़ाना होगा। जरा सोचिए…लौट कर अग्निवीर जेएनयू आया…। अपने देश की राजनीति को उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों के खिलाफ विष-विद्यालय मत बनने दीजिए।