कागज पर लिखी गजल बकरी चबा गई
चर्चा पूरे शहर में हुई कि एक बकरी शेर खा गई’
कुछ ऐसा ही असमंजस वाला माहौल बना दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए तारीखों के एलान के वक्त। पत्रकार यह नहीं समझ पा रहे थे कि वो लोकतंत्र के उत्सव के बारे में जान रहे हैं या किसी मुशायरे की महफिल का हिस्सा हैं। दिल्ली का मुद्दा शुरू तो हुआ था विपक्ष के शीशमहल से लेकिन जल्द ही मैदान में राजमहल वाले आ गए जो ऐसे धनकुबेर हैं कि उन्हें महिलाओं को पैसे बांटने के लिए सत्ता हासिल करने और सरकारी खजाने की जरूरत नहीं। पक्ष और विपक्ष जितना भी ये तेरा घर, ये मेरा घर कर लें लेकिन दिल्ली की जनता ने भ्रष्टाचार के सवाल पर हुंकार भरना छोड़ दिया है। जनता को सिर्फ अपने घर की चिंता है और वह इसी का गुणा-भाग कर रही है। उसे पता है यही चुनावी वादा भर उसे हर किसी की ‘लाडली’ रहना है। रेवड़ियों के खिलाफ खड़ी रेवड़ियों में से अपनी पसंद का चुनाव करने जा रही दिल्ली पर बेबाक बोल।
आम तौर पर हम अपने स्तंभ की शुरुआत किसी शेर से करते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त ने दिल्ली विधानसभा चुनाव की तारीखों के एलान के वक्त जिस तरह शेरो-शायरी कर माहौल को नाटकीय बना दिया तो लगा ‘शेर’ भी अब रहम की मांग कर रहा होगा कि हमें बख्श दिया जाए।
दिल्ली जैसे भाजपा की नाक और आम आदमी पार्टी के अस्तित्व का सवाल बन चुकी है तो आने वाले समय में चुनाव आयोग के पास कई तरह की शिकायतें पहुंचने की आशंका है। आगे की संभावित शिकायतों की ‘आप-दा’ को देखते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त ने पहले ही संकेत दे दिए कि अपने ऊपर उठे हर सवाल का मुकाबला ‘दीवान-ए-आयोग’ से करेंगे। लोकतंत्र के उत्सव का किसी मुशायरे की महफिल से कड़ा मुकाबला तय है। दिल्लीवालों की तो मौजां ही मौजां।
दिल्ली के चुनावी माहौल के लिए गालिब, मीर, फैज के शब्दों को जहमत देने की जरूरत नहीं है। इसके लिए हिंदी सिनेमा के एक अमर संवाद में मामूली संशोधन की जरूरत भर है, ‘जिनके अपने घर शीशे के होते हैं, वो दूसरों के शीशमहल पर पत्थर नहीं फेंकते।’ एक शीशमहल के बरक्स राजमहल ले ही आया गया है। कोई ढांचा जनता को महल दिखाई देगा या किसी निर्मोही की कुटिया यह उस वक्त का राजनीतिक माहौल तय करता है। फिलहाल तो महल-महल के खेल में दोनों तरफ राजा ही हैं। रंक तो सिर्फ जनता के खेमे में ही देखे जा सकते हैं अब।
यह भी पढ़ें…मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: सवाल का सवाल है
तकनीकी रूप से एक अर्द्धराज्य के मुख्यमंत्री के निवास और प्रधानमंत्री के निवास की तुलना वैसी ही बेमानी है जैसे राज्यसभा के पीछे के दरवाजे से आए नेताओं और लोकसभा के मैदान से सीधे चुनाव जीत कर आए नेताओं की। आज आम लोगों के जीवन पर सबसे असर वही नेता डाल रही हैं जो कहती हैं कि मैं चुनाव नहीं लड़ सकती…मेरे पास उतने पैसे नहीं हैं। वहीं दिल्ली में अति विशिष्ट नई दिल्ली सीट से उम्मीदवार के पास इतने पैसे हैं कि वे चुनावों के पहले दिल्ली की महिलाओं का दुख नहीं देख सके और उन्हें पैसे बांटने लगे। इसके पहले शायद उन्होंने अपने शीशे के घर में मोटे पर्दे लगवा लिए होंगे कि दिल्ली की महिलाओं का दुख उन्हें नहीं दिखे।
आम आदमी पार्टी ने तो सरकार ही जनता के लिए सरकारी खजाना खोल देने के वादे से बनाई थी तो उसके पास ऐसी योजनाओं की कमी नहीं। यह दूसरी बात है कि आम आदमी पार्टी की हर योजना पर दिल्ली के उपराज्यपाल की पैनी नजर होती है और मामला अदालत में पहुंचता है। वे खुद को शायद अंग्रेजों के जमाने के उस्ताद समझते हैं, इसलिए सार्वजनिक पत्र लिख कर अरविंद केजरीवाल और आतिशी के बीच फूट डाल कर अपना राज कायम करना चाहते हैं। वे आतिशी की इतनी तारीफ करते हैं कि कभी-कभी आतिशी को लगता होगा कि उनके सिर पर रखी खड़ाऊं शायद उनके पांव के नाप की ही है।
यह भी पढ़ें… मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: नेता! नहीं सदा के लिए
आम आदमी पार्टी ने जिस ऐतिहासिक तरीके से दिल्ली की सत्ता पाई थी, आज दस साल बाद वही इतिहास ठिठका हुआ है। 2013 में भाजपा-कांग्रेस के नेताओं को जेल भेजने वाले अरविंद केजरीवाल जेल से सत्ता चलाने का अकल्पनीय, अद्भुत, असंभव कारनामा कर चुके हैं। जमानत पर बाहर आने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि जनता जेल को उतनी भी अच्छी जगह नहीं समझती है। भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ कट्टर ईमानदार की दावेदारी नहीं की जा सकती। माहौल को पूरी तरह अपने खिलाफ पा अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। दूसरा इतिहास रचा आतिशी ने संविधान को ताक पर रख, खुद को खड़ाऊं मुख्यमंत्री कह कर।
अरविंद केजरीवाल आज भी खुद को अगला मुख्यमंत्री बता कर ही वोट मांग रहे हैं। सिर पर मुख्यमंत्री के ताज को हटा कर खड़ाऊं रख कर चलती आतिशी यह अच्छी तरह जानती हैं कि जिस खड़ाऊं को वो लोकतंत्र के तकाजों और संविधान से ऊपर रख रही हैं उसे पहनने वाले पांव कभी भी जेल की ओर रुख कर सकते हैं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सशर्त जमानत मिली थी कि वे दिल्ली सचिवालय नहीं जाएंगे। जिस व्यक्ति को दिल्ली सचिवालय की तरफ जाने के लिए रोक लगी थी वह खुद को सचिवालय के अगुआ होने का दावेदार बता रहे हैं। याद रहे, उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया है। उन पर लगे इल्जाम अभी भी बरकरार हैं।
अरविंद केजरीवाल पर कभी भी जेल वापसी जैसे हालात के अलावा पिछले दस सालों में और भी बहुत फर्क आया है। जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी सत्ता की दावेदार थी तब उसके पास संतोष कोली जैसी कार्यकर्ता थी। संतोष कोली…आम आदमी पार्टी की कार्यकर्ता जो अरविंद केजरीवाल के आंदोलन से जुड़ी संस्था में काम करती थीं। एक सड़क हादसे में संतोष कोली की मौत हो जाती है। उस वक्त संतोष कोली के परिजनों से लेकर आम आदमी पार्टी ने इसे हत्या बताया। कोली के परिजनों ने मामले को सीबीआइ को भेजने की मांग की थी।
अब ग्यारह साल बाद ऐन चुनाव के मौके पर हिंदी अकादमी एक साथ तीन साल के पुरस्कारों का एलान करती है जिसमें एक पुरस्कार ‘संतोष कोली’ के नाम का है। जाहिर सी बात है कि सभी पुरस्कार प्राप्तकर्ता दिल्ली के ही निवासी होंगे और यहां के मतदाता भी। ‘मतदाता सूची’ पर तो नजर रखनी ही पड़ती है। अभी पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से लिखने का दौर है। इसलिए अभी ही राजनीति-शास्त्र की किताब में ‘रेवड़ियों के प्रकार’ का अध्याय जोड़ देना चाहिए। जब आम जनता को मुफ्त बिजली-पानी मिले तो उसे रेवड़ी कहते हैं और साहित्य के वरिष्ठों को दी जाने वाली रेवड़ी को पुरस्कार कहा जाता है। आम आदमी पार्टी दे तो रेवड़ी और भाजपा दे तो उसे ही जनकल्याणकारी योजना कहा जाता है।
अब पुरस्कार के नाम के जरिए ही सवाल पूछा जा सकता है कि क्या आज आम आदमी पार्टी के पास संतोष कोली जैसी कार्यकर्ता हैं? क्या आज दिल्ली की जनता ‘आप’ को लेकर दस साल पहले जैसी उम्मीदजदा है? आखिर मनीष सिसोदिया को पटपड़गंज छोड़ कर क्यों कथित सुरक्षित सीट की ओर भागना पड़ा। मनीष सिसोदिया तो ‘आप’ की पार्टी और नीतियों के अग्रदूत थे। पार्टी स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में बेहतरी के दावे करती रही है। फिर पूर्व शिक्षा मंत्री को ही अपने क्षेत्र से चुनाव लड़ने में डर क्यों लगा?
मुफ्त बिजली-पानी ही ‘आप’ का सहारा है। भाजपा ने कह दिया है कि वह सत्ता में आई तो कोई जनकल्याणकारी योजना बंद नहीं होगी। ‘आप’ की राजनीति में अब 2013 वाली मर्यादा पुरुषोत्तम वाली खटखट है या अब खड़ाऊं भी खतरे को भांप रही है खरामा खरामा?
यह तो तय है कि दिल्ली में लंबा वनवास भोगने वाली भाजपा सिर्फ शीशमहल के सहारे सत्ता में नहीं आ सकती है। दिल्ली से लेकर पूरे देश की जनता को पता है कि उनके घर में रखी मशीन सिर्फ कपड़े धोती है लेकिन राजनीतिक दलों की मशीनें भ्रष्टाचार के सारे दाग धो देती हैं। लोकसभा से लेकर अभी तक भाजपा की रणनीति देखिए तो यही संदेश है कि उसकी पूरी उम्मीद सिर्फ आम आदमी को होने वाले संभावित नुकसान से है। आम आदमी पार्टी और केजरीवाल से नाराजगी के जनता के और भी कारण हो सकते हैं लेकिन अब कम से कम दिल्ली की जनता ने भ्रष्टाचार के नाम पर हुंकार भरना छोड़ दिया है।
दोनों मुख्य दलों के ये तेरा घर, ये मेरा घर की जुगलबंदी के बीच जनता अपने घर के हालात देख रही है। दिल्ली में वो जनता भी है जिनके घरों को ‘जी-20’ के समय पर्दे से ढक दिया गया था ताकि विदेशी मेहमान दिल्ली स्थित सिर्फ शीशमहल, राजमहल देख सकें। जनता अपना गुणा-भाग कर रही है क्योंकि अब वो दोनों को पर्दे के पीछे से जानती है। आपके लिए जो रेवड़ियां हैं जनता के लिए अब वही एकमात्र पैमाना।