राजनीति में पक्ष या विपक्ष का खेमा रातोंरात नहीं बदलता। यह सालों चलने वाली लंबी प्रक्रिया होती है। लोकतांत्रिक राजनीति सिर्फ जीत या हार का श्वेत-श्याम सा मसला नहीं होती है। इसमें संघर्ष का धूसर रंग होता है जो दोनों पक्षों के लिए जरूरी है। संघर्ष का पैमाना यह कि जीतने वाला कितना आगे बढ़ा और हारने वाला कितना उबरा। 18वीं लोकसभा के लिए चुनाव के बाद जो विपक्षोदय जैसी स्थिति बनी थी वह हरियाणा, महाराष्ट्र व दिल्ली के चुनावों के बाद बदल गई। लेकिन आपरेशन सिंदूर व चुनाव आयोग के मसले पर जिस तरह विपक्ष एकजुट हुआ वह राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ा रहा है। भारत जोड़ो यात्रा के बाद चुनाव आयोग के मसले पर विपक्ष ने महसूस किया कि राहुल गांधी के साथ खड़े होने का मतलब जनता के साथ खड़ा होना है। राहुल गांधी जनता के बीच उस रस्सी जैसे दिख रहे हैं जो लगातार संघर्ष से पत्थर पर भी निशान छोड़ देती है। भारतीय राजनीति में राहुल गांधी के बढ़ते निशान व उनकी अस्वीकार्यता को लेकर सत्ता पक्ष के लड़खड़ाए विमर्श पर बेबाक बोल।
विपक्ष…पिछले एक दशक से यूं लग रहा जैसे भारतीय राजनीति में विपक्ष का खेमा किसी प्रयोगशाला में तब्दील हो गया है। सत्ता पक्ष की शक्तिशाली सी दिखती स्थिति में बार-बार इससे सबूत मांगा जाता है कि क्या वह जिंदा है? 18वीं लोकसभा चुनाव के पहले सत्ता से लेकर उसका समर्थक हर मंच पूछ रहा था कि विपक्ष कहां है। उसी समय भारतीय राजनीति में खारिज से किए जा रहे राहुल गांधी ने विपक्ष के स्वयंसेवक के रूप में राजनीतिक प्रयोगशाला में जाना स्वीकार किया।
‘भारत जोड़ो यात्रा’ की मेहनत का नतीजा ‘INDIA’ में दिखा
विपक्ष के रूप में राहुल गांधी ने शुरुआत वहीं से की जहां से राजनीति का ककहरा शुरू होता है, यानी जनता से जुड़ाव। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की उनकी मेहनत का नतीजा रहा कि विपक्षी दलों ने एक मंच पर आकर इंडिया गठबंधन बनाया। इससे जनता के बीच विपक्ष को लेकर सकारात्मक संदेश गया।
राहुल गांधी जनता के लिए रोजगार के सवाल उठा कर ही मोहब्बत की दुकान खड़ी कर पाए। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक जनता के बीच पैदल चल कर राहुल गांधी ने अपनी छवि एक जुझारू नेता के रूप में बनाई। इस मोहब्बत की दुकान से मुनाफे के रूप में राहुल गांधी ने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का ओहदा अर्जित किया। साथ ही केंद्र की भाजपा सरकार खुद को राजग सरकार कहलवाने के लिए मजबूर हुई। 18वीं लोकसभा की सदन की पहली बैठक में ही राहुल गांधी की अगुआई में विपक्ष पुनर्जीवित दिखा।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: लगी सवालों की झड़ी है
मुश्किल यह थी कि इंडिया गठबंधन का नाता लोकसभा चुनाव को लेकर था। लोकसभा चुनाव के बाद इंडिया गठबंधन के दल अपनी डफली अपने राग के साथ आगे बढ़े और नतीजा यही निकला कि हर तरफ राजग की ही जीत दिखने लगी। लोकसभा चुनाव के बाद इंडिया गठबंधन के कई नेता सजग रूप से राहुल गांधी से अलग दिखने की कोशिश करने लगे। विधानसभा चुनावों में हार के बाद कुछ सहयोगी दलों के नेताओं ने राहुल गांधी के नेतृत्व पर तीखे सवाल उठाए।
अहम विधानसभा चुनावों में राजग का परचम लहराते चला गया और फिर से पूछा जाने लगा कि विपक्ष कहां है? जनता ने उसे क्यों नकार दिया? क्या विपक्ष कभी इतना ताकतवर होगा कि केंद्रीय सत्ता पक्ष को नुकसान पहुंचा पाएगा? विपक्ष की एकता को लेकर निराशा ही दिख रही थी।
इसके बाद आता है बिहार विधानसभा चुनाव का मोड़। बिहार में चुनाव आयोग ने बहुत कम समय में गहन मतदाता सूची पुनरीक्षण अभियान शुरू कर दिया। सूबे में चुनाव आयोग की इस अति सक्रियता ने विपक्षी दलों को सतर्क किया और उन्होंने इसे ‘वोटबंदी’ करार दिया।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: नौकरशाह
इसी समय राहुल गांधी चुनाव आयोग पर गहरे सवाल लेकर सामने आते हैं। हालांकि राहुल गांधी लोकसभा चुनाव के बाद से ही लगातार चुनाव आयोग पर सवाल उठा रहे थे लेकिन इस बार उन्होंने सबूत के साथ आरोप लगाए। उनकी टीम ने मतदाता सूची में गड़बड़ी के आरोप को लेकर मेहनत की।
भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गांधी ने एक बार फिर साबित किया कि अगर आप मेहनत कर के जनता के बीच आते हैं तो माहौल बदल सकते हैं। सात अगस्त 2025 को राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस कर सदन के बाहर भी विपक्ष के नेता का तमगा फिर से अर्जित कर लिया।
राहुल गांधी ने सबूत दिए कि चुनाव आयोग सत्ता पक्ष के फायदे में काम कर रहा है। अन्य विपक्षी दलों को भी लगा कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए यह एकजुट होने का समय है। राहुल गांधी को लेकर विपक्ष के सभी दलों के सुर बदल गए। संसद परिसर में दृश्य बदलते हुए विपक्ष के लगभग तीन सौ सांसदों ने बिहार की मतदाता सूची और चुनाव आयोग को लेकर प्रदर्शन किया। एकजुट विपक्ष ने पुरजोर तरीके से आरोप लगाया कि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार सरकार के प्रवक्ता की तरह व्यवहार कर रहे हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव में विपक्षी दल उत्तर प्रदेश, पंजाब और दिल्ली वाली गलती नहीं दुहराना चाहते हैं। अभूतपूर्व तरीके से तेजस्वी यादव ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित किया और खुद को मुख्यमंत्री के चेहरे तक महदूद रखा।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: कोई शेर सुना कर
विपक्ष के बीच राहुल गांधी की स्वीकार्यता संसद के मानसून सत्र में भी दिखी। आपरेशन सिंदूर को लेकर सरकार ने विपक्ष के नेताओं को विदेश भेजा। राजग सरकार को उम्मीद थी कि इससे वह विपक्ष में और तोड़फोड़ कर देगी। लेकिन हुआ इसका उलटा। संसद में आपरेशन सिंदूर पर चर्चा के दौरान पूरा विपक्ष एकजुट होकर सेना के साथ खड़ा हुआ और उसी एकजुटता के साथ सरकार को कठघरे में रखा। संघर्ष विराम से लेकर, चीन व ट्रंप तक के मुद्दे पर सरकार के लिए मुश्किल की स्थिति बनी। खास तौर पर विदेश नीति को लेकर सरकार बुरी तरह घिरी।
वहीं लोकसभा अध्यक्ष के लिए नैतिक दृष्टिकोण से एक मुश्किल स्थिति और बनी जब सत्रावसान से पहले हुई चाय की बैठक का पूरे विपक्ष ने बहिष्कार किया। इससे पहले ऐसे अवसर को पक्ष-विपक्ष से परे देखा जाता था और सभी इसमें शामिल होते थे। लेकिन इस बार विपक्ष का मेहमान बनने से इनकार मेजबान के खिलाफ एक संगठित सोच की आहट तो है।
राहुल गांधी ने पिछली दो बार से अपनी मेहनत के लिए एक जमीन चुनी। पहले भारत जोड़ो यात्रा और दूसरी बार चुनाव आयोग बनाम सत्ता के कथित रिश्ते को उजागर करने का मिशन। इसके साथ ही वे कई मुद्दों पर मुखर रहते हुए अपने सुर से लेकर रणनीति पर कायम रहे हैं। सत्ता पक्ष भी राहुल गांधी के प्रति अति आक्रामक होकर खुद ही उनके कंधे पर विपक्ष के नेता का बिल्ला टांग रहा है। चुनाव आयोग का विवाद व संविधान (संशोधन) विधेयक-2025 जैसे मुद्दे विपक्ष को एकजुट होने के पर्याप्त कारण दे चुके हैं।
हालांकि सत्ता पक्ष जिस तरह से संगठित है उसे फिलहाल यह एकजुट विपक्ष अपदस्थ नहीं कर सकता है। राजनीति में सिर्फ हार और जीत मायने नहीं रखते। मायने यह भी रखता है कि आप अपनी जीत से कितना आगे बढ़े या अपनी हार से कितना उबरे। यह विपक्ष सत्ता पक्ष को हरा नहीं पाएगा तो आगे भी नहीं बढ़ने देगा। विपक्ष सीख रहा है कि एकजुट होकर पक्ष को परेशान कैसे किया जा सकता है।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: मुड़ मुड़ के न देख…
आज हम बेबाकी से कह रहे हैं कि बिहार, असम, केरल, बंगाल जैसे आने वाले विधानसभा चुनाव खास कर 2027 में उत्तर प्रदेश का चुनाव भारतीय राजनीति में निर्णायक मोड़ साबित होने वाला है। ज्ञानेश कुमार की प्रेस कांफ्रेंस से लेकर चुनाव विश्लेषक संजय कुमार तक के विवाद से साबित हो रहा है कि आगे आंकड़ों का घमासान शुरू होने वाला है।
राहुल गांधी अभी उस मुलायम रस्सी की तरह देखे जा रहे हैं जो रोज धीरे-धीरे संघर्ष कर पत्थर पर भी अपने निशान छोड़ देता है। शायद वो अपनी मेहनत से जनता के दिल पर निशान बना रहे हैं तभी विपक्ष उन्हें एकजुट सम्मान देने को तैयार हुआ है। देखना है कि यह निशान सत्ता को कितना परेशान कर पाता है। भारतीय राजनीति में राहुल गांधी की अस्वीकार्यता पर सत्ता पक्ष का तमाम खड़ा किया विमर्श अभी तो लड़खड़ाता हुआ दिख रहा है, जिसका अर्थ है विपक्ष का संभलना।