लेकिन, इसी समय तृणमूल कांग्रेस, राकांपा और भाकपा पर राष्ट्रीय दल से बे-दर्जा होने की बिजली गिरी तो अरविंद केजरीवाल को ‘राष्ट्रीय’ होने पर उम्मीद के बीज मिलते ही आबकारी मामले में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के सामने पेशी का फरमान मिला। एकजुट होकर भाजपा की शक्ति कम की जा सकती है के हौसले के समय ममता बनर्जी, शरद पवार, डी राजा, अरविंद केजरीवाल के हालात बदल गए हैं। राहुल गांधी पहले से सजायाफ्ता हैं। विपक्ष के मैदान में यह क्या हो रहा है को समझने की कोशिश करता बेबाक बोल।
कहीं नाउम्मीदी ने बिजली गिराई
कोई बीज उम्मीद के बो रहा है
इसी सोच में मैं तो रहता हूं ‘अकबर’
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है
-अकबर इलाहाबादी
पिछले दिनों खत्म हुआ संसद का सत्र। विपक्ष के नेता से माफी की मांग करती सरकार पर संसद नहीं चलने देने का आरोप लगा। कांग्रेस के नेता काले कपड़े पहन कर आते रहे व अन्य विपक्षी नेता धरना-प्रदर्शन करते रहे। संसद के बाहर कांग्रेस इस बात पर तैयार दिखी कि पहले बच जाएं, बड़ा या छोटा भाई वाली रिश्तेदारी बाद में देखेंगे। उद्धव ठाकरे के समझाने पर राहुल गांधी सावरकर पर अपना गर्म सुर नरम करने को तैयार से दिख रहे हैं।
चौदह दलों के नेता सरकारी एजेंसियों पर लगाम के लिए शीर्ष कोर्ट पहुंचे
चौदह दलों के नेता एकजुट होकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और केंद्रीय जांच एजंसियों के पक्षपात का आरोप लगाया। आंकड़े दिए कि विपक्ष के नेताओं पर ही जांच एजंसियों का शिकंजा क्यों? अदालत ने मामला खारिज कर दिया, लेकिन यह मुद्दा तो उठ ही गया। कुल मिलाकर बीता संसद का सत्र विपक्षी एकता का सीधा प्रसारण सा दिख रहा था।
संसद सत्र में विपक्षी दल जब यह भावना दिखा रहे थे कि विपक्ष का नेता कौन के झगड़े में न पड़ कर अपनी जमीन मजबूत कर लें तभी चुनाव आयोग का इनकी जमीन हिलाने वाला फैसला आता है। ममता बनर्जी (तृणमूल कांग्रेस) और शरद पवार (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी) की अगुआई वाले दलों के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ) का राष्ट्रीय दल का दर्जा छिन गया।
शरद पवार को लंबे समय तक प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश किया जाता रहा था और ममता बनर्जी उन जमीनी नेताओं में शुमार हैं जिन्होंने वाम के ‘लाल-किला’ को ध्वस्त करने के बाद बंगाल में दक्षिण के भगवा झंडे को लहराने से भी रोका। तकनीकी रूप से अब दोनों एक क्षेत्रीय दल के नेता हैं। शरद पवार और ममता बनर्जी कांग्रेस की कोख से निकले वे नेता हैं जिन्हें एक समय के बाद लगा कि अपनी साख बनाने के लिए कांग्रेस की शाख से नाता तोड़ना पड़ेगा।
दोनों ने कांग्रेस को चुनौती देने के साथ भारतीय राजनीति को विपक्ष का एक मजबूत चेहरा भी दिया था। लेकिन, आज जब कांग्रेस की जगह पर भाजपा है तो सबके सामने एक ही चुनौती है कि विपक्ष का पेड़ कौन सा हो जिसमें अन्य दल अपने अस्तित्व की शाखाओं के साथ फले-फूलें। पेड़ न भी मिले तो लताएं ही एक-दूसरे का सहारा बन कर आगे बढ़ें और अपने होने का संदेश दें।
विपक्ष के रागात्मक भाव के लिए सबसे निराशाजनक है, अपनी स्थापना के सौ साल को छूने जा रही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे का समाप्त होना। वामपंथी विचारधारा के साथ भाकपा ने संसदीय राजनीति को एक दिशा दी थी। भारतीय राजनीति में वामपंथ सत्ता की सीटों के हिसाब से चाहे कितना भी कमजोर रहा हो, लेकिन विपक्ष के रूप में लोकतांत्रिक लहजा बनाए रखने की कोशिश करता था।
थोड़ी सी ताकत के साथ उसकी कोशिश रही कि सड़क पर संघर्ष का जज्बा कायम रहे। वामपंथी दल क्षेत्रीय क्षत्रपों की अस्मितावादी राजनीति और वंशवाद की आलोचना करते हुए नीतिगत मुद्दों पर वैचारिक भटकाव से बचते थे। जिस दल के नेताओं पर रूस और चीन की नीतियों की नकल का आरोप लगता था उनकी वैश्विक पैठ तो छोड़िए अब राष्ट्रीय दावेदारी भी नहीं है।
भाकपा की सीट इतनी कम हो चुकी है कि जनअधिकारों वाला, इंकलाबी नारे वाला हसिया-मक्के की बाली अब अखिल भारतीय निशान नहीं रहा। भाजपा का चरम पर पहुंचना और एक जनवादी पार्टी का पतन भारतीय सियासत में एक मुश्किल लड़ाई का संदेश तो दे ही रहा है।
राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते कोई भी दल राष्ट्रीय दावेदारी आसानी से कर सकता है जैसे अब अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं। नीतिगत फैसलों के वक्त आपको आमंत्रित किया जाता है, राष्ट्रीय राजधानी में मुख्यालय के लिए जगह मिलती है और उसके नेता की अखिल भारतीय छवि बनती है। भाकपा, राकांपा और तृणमूल के इस नुकसान को कैसे देखा जाए? यह विपक्ष के मनोबल को तोड़ेगा या फिर उन्हें एकजुट होने के लिए प्रेरित करेगा?
यह तो साफ देखा जा रहा है कि विपक्ष अपने आंतरिक विरोधाभास को खत्म करने की कोशिश में है। यह विरोधाभास दो तरह का है। एक वे दल, जिसके साथ कांग्रेस का विरोधाभास है चाहे उसमें तृणमूल हो या बीआरएस। इन्हें साथ लाने की जिम्मेदारी नीतीश कुमार ने ली है। दूसरी तरफ तमिलनाडु में एमके स्टालिन हैं जो विपक्ष के लिए राजनीतिक विमर्श बनाने की कोशिश में हैं।
राजनीतिक विमर्श भी दो तरफ से बन रहे हैं। अभी तक भाजपा ने एक विमर्श गढ़ा है कि विपक्ष के ये सभी दल भ्रष्टाचारी हैं, एक-एक कर पकड़े जा रहे हैं तो गुट बनाकर अदालत पहुंच गए। अदालत ने भी इनकी बात नहीं मानी और अपनी अपील को लेकर बैरंग लौटे।
दूसरी तरफ, नीतीश कुमार से लेकर स्टालिन तक का विमर्श है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए सबको इकट्ठा होना ही होगा। और, यह सिर्फ अस्तित्व बचाने भर का मामला नहीं है, राजनीतिक सिद्धांत आगाह करता है कि हर सभ्यता-संस्कृति में ‘अपराजेयता’ एक मिथक ही रही है। शक्ति-संतुलन का बदलना इतिहास का अनिवार्य नियम है।
पिछले दिनों पूर्वोत्तर से लेकर कई जगहों के चुनावों से विपक्ष के द्वारा समझाने की कोशिश हो रही है कि वोटों के बंटवारे को रोक कर भाजपा की शक्ति कम की जा सकती है। अभी पूर्वोत्तर में टिपरा मोथा के साथ अंतिम समय तक बातचीत होती रही और कई जगहों पर जीत का अंतर चार सौ या तीन सौ वोटों का रहा है। इससे एक विमर्श तैयार किया जा रहा है कि विपक्ष की वापसी हो सकती है।
इस संभावना के तहत विपक्ष के नेता अपनी-अपनी जिम्मेदारी ले रहे हैं। लेकिन, अभी इसमें कई तरह के विरोधाभास हैं। एक विरोधाभास इन दलों के बीच का ही है। विपक्ष के संदर्भ में दूसरा विरोधाभास है आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलना। आम आदमी पार्टी ने अपनी राजनीतिक फसल कांग्रेस की जमीन पर ही उगाई है।
आज का आम आदमी पार्टी का मतदाता कल तक कांग्रेस का ही हुआ करता था। हालांकि, पंजाब एक ऐसा राज्य है जहां जीत के बाद आम आदमी पार्टी दिल्ली वाली मुफ्त-मुफ्त और ‘काम नहीं करने देते हैं जी’ वाली राजनीति नहीं कर पा रही है। वहां के लोगों को अहसास होने लगा है कि आम आदमी पार्टी पंजाब का भविष्य नहीं है। उत्तराखंड से लेकर गुजरात तक तो उसे नकार मिल ही चुकी है।
दिल्ली में दहाड़ने वाली आम आदमी पार्टी की पंजाब में चुप्पी, यानी इन दो रूपों का तुलनात्मक अध्ययन कर्नाटक में क्या नतीजा देगा यह भी देखने वाली बात होगी और आम आदमी पार्टी के ‘राष्ट्रीय दर्जे’ का भविष्य तय करेगी। हालांकि, राष्ट्रीय दर्जे के साथ सीबीआइ के समन ने अरविंद केजरीवाल को एक विडंबना की स्थिति में रख दिया है।
कर्नाटक का चुनाव किसी के लिए भी बहुत आसान नहीं दिख रहा है। वहां भाजपा भी अंदरूनी संघर्ष से गुजर रही है और आम आदमी पार्टी तो ‘राष्ट्रीय दर्जे’ और केजरीवाल जी को समन के साथ पहुंची है। कांग्रेस करो या मरो की हालत में है। कांग्रेस यहां अपने दर्जे को लेकर नरम होने को तैयार हो सकती है ताकि कुछ हासिल कर वह फिर अपनी श्रेष्ठता को लेकर गरम हो सकने की स्थिति में आ सके।
वृहत्तर एकता के लिए जाति जनगणना को भी आधार बनाने की कोशिश हो रही है। मंडल बनाम कमंडल की हांडी क्या एक बार और चढ़ पाएगी यह भी देखने की बात होगी। लेकिन जिस तरह अन्य पिछड़ा वर्ग को भाजपा अपने खेमे में कर रही है, तो यह भी विपक्ष के लिए तुरुप का पत्ता सरीखा नहीं रहा।
संसद में सरकार का विपक्ष से माफी मांगो अभियान और विपक्ष का हम एक हैं का सामूहिक गान यह तो बता गया कि 2024 की लड़ाई एकदम से एकतरफ नहीं रहने वाली है। तीन अहम दलों का राष्ट्रीय दर्जे का खात्मा और अरविंद केजरीवाल को एजंसी का बुलावा बता रहा कि विकल्प अब रह नहीं गया और संकल्प के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है।
भाजपा को एकजुट टक्कर देने का संकल्प 2024 तक कितना सफल हो पाएगा यह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों दलों के लिए अहम होगा। ‘अपराजेय’ के सामने अन्य के जिंदा रहने के संघर्ष के नाम रहेगा ‘2024’।