खूं पिला कर जो शेर पाला था
उस ने सर्कस में नौकरी कर ली
-फहमी बदायूनी

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दिनों कहा कि अगर सभी विपक्षी दल कांग्रेस के छाते के नीचे आ जाएं तो भाजपा को सौ सीटों पर समेटा जा सकता है। इसके पहले, बिहार में जब भी भाजपा को मुश्किल आती थी तो अपने वर्तमान के राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए नीतीश कुमार भविष्य के लिए उसका अपार विस्तार कर जाते थे। लेकिन, अब हालात इतने बदल चुके हैं कि नीतीश कुमार और भाजपा दोनों एक-दूसरे को आगे के लिए नकार चुके हैं। अब, जबकि बिहार में भाजपा अपनी जमीन तैयार कर चुकी है तो नीतीश कुमार बिहार से बाहर निकल कर भाजपा के खिलाफ गोलबंदी की अपील कर रहे हैं।

इधर विपक्ष एकजुट हो रहा, उधर नागालैंड में विधानसभा विपक्ष मुक्त हो गई

विपक्ष को कांग्रेस की अगुआई में आने की नीतीश की अपील के कुछ दिनों बाद ही पूर्वोत्तर के राज्य नगालैंड से खबर आती है कि सूबे की विधानसभा फिर विपक्ष मुक्त हो चुकी है। राकांपा के सात विधायकों सहित जद (एकी) के एकमात्र विधायक ने भी विपक्ष के रूप में ‘एकला चलो रे’ की जगह सरकार को समर्थन देने का सामूहिक गान ही चुना। नगालैंड की विपक्ष-मुक्त विधानसभा संख्यात्मक स्तर पर चाहे जितनी छोटी हो आगे के चुनाव के लिए बड़ा संदेश दे रही है।

मनीष सिसोदिया के लिए पत्र लिखने वालों से कांग्रेस, माकपा का किनारा

भारतीय राजनीति में अपना जलवा दिखा चुका विपक्षी एकता का गुलदस्ता आज बिखरने की कगार पर है। हाल ही में मनीष सिसोदिया के संदर्भ में नौ विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख कर केंद्रीय जांच एजंसियों के काम पर पक्षपात का आरोप लगाया। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इस घटना को अहम माना जा सकता है। लेकिन, इन सामूहिक पत्र-कारों का हिस्सा बनने से कांग्रेस, माकपा और डीएमके जैसे दलों ने साफ इनकार कर दिया। एक तरह से कहें तो इस पत्र ने आगे की तस्वीर साफ कर दी है। वैसे भी, भ्रष्टाचार अब ऐसा मुद्दा है जिसकी परिभाषा हर दल के लिए अलग है तो इस पर एका बनने से भी सवाल उठ खड़े हो सकते थे।

बीसवीं सदी के सत्तर और नब्बे के दशक भारतीय राजनीति में अहम मोड़ साबित हुए थे। इस दौर में भारतीय लोकतंत्र के विपक्षावतार ने नई कहानी लिखी थी जो 2014 तक चली। इसके बाद अगर हम विपक्ष की प्रवृत्ति का विश्लेषण करेंगे तो हमें एक अध्याय पर रुक कर सोचना और समझना पड़ेगा तभी बात आगे बढ़ाई जा सकेगी। वह अध्याय है, भारतीय राजनीति में आम आदमी पार्टी का अचानक से आना और छा जाना। आम आदमी पार्टी की आंधी ने कांग्रेस के खिलाफ ऐसी धूल उड़ाई थी कि वामपंथी दलों की आंखें तक चकाचौंध हो गईं। वर्ग-संघर्ष का मार्क्सवादी बुनियादी पाठ भूल वे आम आदमी पार्टी के वर्गीय चरित्र को देखे और समझे बिना अपना नैतिक समर्थन दे बैठे।

विपक्ष का विकल्प बनकर आई आम आदमी पार्टी ने भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष के मायने ही बदल दिए। दिल्ली जीतने के बाद आम आदमी पार्टी उन्हीं जगहों पर विपक्ष की भाषा बोलती है, जहां उसे विधानसभा चुनाव लड़ना होता है। वरना, पार्टी के अगुआ अरविंद केजरीवाल ‘मेरा वचन ही मेरा शासन है’ जैसा बाहुबलीनुमा पक्ष बनने में ही भरोसा करते हैं।

एक तरह से कहें तो 2014 के बाद की राजनीतिक जमीन भाजपा और आम आदमी पार्टी की शक्ति से ज्यादा कांग्रेस की कमजोरी की जमीन रही। कांग्रेस की कमजोरी से निकली जमीन में कुछ भाजपा की तो कुछ आम आदमी पार्टी की हुई। इस राजनीतिक बंटवारे के बाद दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने पक्ष का पक्षकार बन कर ही वोट मांगा था, यानी केंद्र में मोदी तो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल।

कांग्रेस की जमीन खिसका कर और वाम का नैतिक समर्थन पाकर वह आम आदमी पार्टी विपक्ष का चेहरा बन गई, जिसकी उतनी ही तरह-तरह की विचारधारा है जितने कि चुनावी राज्य। खास बात है कि चाहे चुनाव आते ही यह विचारधारा बदल जाए, लेकिन इन्होंने खुद को ‘कट्टर’ का खिताब दे रखा है। तो, आम आदमी पार्टी काल में विपक्ष के लिए विपरीत से दिखते इस दौर में एक बार फिर वही सवाल कि क्या होगा विपक्षी एकता का?

कांग्रेस की जमीन खिसकने और आम आदमी पार्टी की आमद के पहले वामपंथी दल इतने मजबूत थे कि वे विपक्ष के सवाल की केंद्रीय धुरी बनते थे। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-प्रथम की सरकार के समय वाम की साख ने ही विपक्ष को एकजुट किया था। साझा कार्यक्रम में मनरेगा जैसी योजना आई, जिसे भाजपा ‘कांग्रेस का स्मारक’ कह कर भी आज तक ध्वस्त करने का साहस नहीं कर पाई। ‘साझा कार्यक्रम’ शब्द भी इसलिए आया, क्योंकि केंद्रीय दलों में विचारधारा का विरोधाभास होना स्वाभाविक था। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-प्रथम की सरकार से वाम का करार भी विचारधारा के स्तर पर ही टूटा था कि अमेरिका के साथ परमाणु करार के मुद्दे पर अब साथ नहीं चला जा सकता।

कांग्रेस और वाम जैसे केंद्रीय दलों के मिलन में दिक्कत होती है, लेकिन एक केंद्रीय दल का किसी क्षेत्रीय दल के साथ गठबंधन में वैसी दिक्कत नहीं होती है। अभी ताजा उदाहरण देख सकते हैं कि मेघालय में चुनाव के पहले अलग होने के बाद भी एनपीपी व भाजपा के साथ गठबंधन की अपभ्रंश सरकार बन गई। कांग्रेस अगर बिहार में राजद के साथ गठबंधन में है तो उसे दूसरी जगह दिक्कत नहीं होगी, लेकिन वह अगर किसी एक राज्य में माकपा के साथ गठबंधन में है तो उसे दूसरे राज्य में दिक्कत हो सकती है। वामपंथी दल विचारधारा आधारित हैं तो उनकी साफ समझ है कि भाजपा के खिलाफ गठबंधन बनाओ और वाम-लोकतांत्रिक दलों को एक करो।

दिक्कत तब है जब दो केंद्रीय पार्टियां बिना विचारधारा के जुटने की बात करें। ऐसा ही रिश्ता कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच बनता है। भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस की विचारधारा को स्पष्ट करने के शिशु कदम तो उठाए हैं। लेकिन, वाम का कमजोर होना और विचारधारा के स्तर पर आम आदमी का हर राज्य में अलग-अलग तरह से ‘कट्टर’ होना ने वह वक्त ला दिया है जब चुनावों के समय विपक्षी एकता का मंच वैसा ही रस्मी लगने लगता है, जैसा कि पेड़ों को काट कर बनाए गए वातानुकूलित अपार्टमेंट के घरों की बैठकों से गौरैया और बाघ को बचाने की कविता लिखना।

अभी तो दिख रहा है कि आनेवाले चुनावी समय में विचारधारा के संकट पर नहीं, भाजपा के सामने अपना अस्तित्व बचाने के आधार पर ही किसी तरह की चुनावी एकता होगी। भाजपा भी अपनी बढ़त बनाए रखने के लिए हर संभव गठबंधन को हां कहेगी। अभी त्रिपुरा में भाजपा से खुद को बचाने के संकट में कांग्रेस और माकपा ने एक-दूसरे का दामन थामने में ही भलाई समझी। इस गठबंधन ने भाजपा की कुछ सीटें कम की। जहां-जहां सीधा मुकाबला था, वहां भाजपा के लिए जीत आसान नहीं थी, लेकिन जो भी मैदान त्रिकोणात्मक हुआ वह भाजपा की झोली में गया। मेघालय से लेकर कई ऐसे उदाहरण हैं जहां के समीकरण को समझ कर भाजपा गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रही।

अभी तक की गठबंधन सरकारों को नकारात्मक रूप में ही देखा गया

पिछले दो आम चुनावों के दौरान ‘मजबूत सरकार’ का भी राजनीतिक विमर्श तैयार किया गया और अभी तक की गठबंधन सरकारों को नकारात्मक रूप में ही देखा गया जो किसी तरह के मजबूत फैसले नहीं कर सकती थी। हालांकि, यह विपक्ष पर था कि वह एकजुट होकर इस विमर्श के खिलाफ अपनी बात रखता, लेकिन अफसोस उसने अपनी छवि बहाली के लिए किसी तरह की एकता से परहेज ही किया।

2024 में विरोधाभासों की जमीन पर विपक्ष की वृहत्तर एकता का नक्शा पास होने की उम्मीद नहीं दिख रही है। संख्या में सिमटते वाम की बात पर अब क्षेत्रीय दल कान नहीं देंगे और उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा उन्हें कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से दूर ही रखेगी। भाजपा के खिलाफ विपक्षी केंद्रीय दलों का ताजा हाल तो यही बता रहा कि 2024 में पक्ष और विपक्ष की सूरत पूरी तरह से बदलने की उम्मीद कम ही होगी।