आज जब अरविंद केजरीवाल गुरबत के गहने को राजनीति के झूठे वादों के संग्रहालय में रख चुके हैं तो आम आदमी के पास यही सवाल है कि अब किस पर भरोसा करे? अरविंद केजरीवाल ने अन्य पारंपरिक राजनीतिक दलों की तरह अपना सौंदर्यीकरण करवा लिया है तो सबसे बड़ा खतरा इस बात का है कि आगे राजनीति की बदसूरती दूर करने के किसी वादे पर शायद ही कोई उम्मीद नजर आए। विकल्प की विडंबना पर बेबाक बोल।
एक रंक से बन कर राजा
गुरबत अपनी भूल गया
नकलीपन में ऐसा उलझा
असलियत ही भूल गया
र से राजा र से रंक, फिर दोनों में जमीन-आसमान का भेद क्यों? राजा के राज पर सवाल उठा कर किसी ने अपना राब्ता रंक की ओर से दिखाया। कहा, मुझे अपना रहनुमा बना लो तो राजनीति में सब कुछ बदल जाएगा। अमीरों के आलीशान मकान को भ्रष्टाचार की दुकान का प्रतीक बता कर कहा गया कि सत्ता उसे सौंपो जो तुम्हारे जैसे घर में रहता हो। जनसभाओं में गुरबत का गहना पहन कर वह आम आदमी को यकीन दिला चुका था कि अमीरों वाली राजनीति का विकल्प वही बन सकता है। वही ला सकता है आम आदमी की सरकार, असली स्वराज।
जंतर-मंतर और रामलीला मैदान से सपना दिखाया कि सरकार के प्रतिनिधि का क्या और कितना होगा, सब कुछ जनता तय करेगी। रहने, पहनने-ओढ़ने में राजा और प्रजा के बीच कोई भेद नहीं होगा। लोकतंत्र में गुरबत की इस कथा के साथ यही व्यथा है कि उसका जीवन सत्ता हासिल करने के वादों तक ही सीमित रहता है। सत्ता मिलते ही गरीबी की साज-सज्जा का सामान उतार कर जनता से कह दिया जाता है, जिसका काम उसी को साजे।
जनता की उम्मीदों की इस सरकार के साथ यादें साझा करते हैं साल 2020 की। पूरी दुनिया की स्मृति में 2020 वह खौफ का साल था जब कोरोना ने वैश्विक अस्तित्व पर संकट उठा दिए थे। इस विषाणु ने हुक्म सुना दिया, कोई घर से न निकले। कल-कारखाने बंद हुए, रेल का पहिया थमा, हवाईजहाज जमीन पर टिका दिए गए।
इसी समय देश की राजधानी दिल्ली में इक्कीसवीं सदी का भयावह दृश्य दिखाई दिया। मजदूरों की भीड़ बिना किसी गाड़ी-सवारी के अपने घर जाने के लिए निकल पड़ी। कहा, हमारे पास घर नहीं तो रहें कहां, काम नहीं तो खाएं क्या। दिल्ली से बिहार-उत्तर प्रदेश जाने वाली सड़कों पर भूखे-प्यासे मजदूर चलने लगे।
लाक डाउन के दौरान मजदूरों के जाने के बाद पोस्टर लगवाकर न जाने की अपील क
उस वक्त भी अरविंद केजरीवाल की सरकार भावुक पटकथा लिखने में माहिर थी। जब मजदूर दिल्ली की सरहदों के पार जा चुके थे, तब उन्होंने पूरी दिल्ली में अपने हाथ जोड़े तस्वीर वाले पोस्टर लगवाए कि आप लोग शहर छोड़ कर न जाएं हम आपके खाने-पीने का इंतजाम करेंगे। दिल्ली की सूनी सड़कों पर लगे वे विज्ञापन आज भी कोरोना-काल की स्याह-स्मृति है। इन दिनों कोरोना-काल से जुड़ी कहानी और फिल्में सत्य-कथा की तरह सामने आ रही हैं। इसी कड़ी में कथा आ गई उसी नए-नए राजा बने आम इंसान की जिसने अपने घर के बारे में कहा था कि मैं कहीं भी जाऊंगा तो तीन-चार कमरे से ज्यादा क्या चाहिए? लेकिन जल्दी ही उन्हें आम आदमी जैसे घरों से कोफ्त होने लगी।
आलीशान मकान पाने की इतनी जल्दी हुई हुई कि कोरोना से मरती हुई प्रजा के बीच लाखों-करोड़ों रुपए की रसीद जारी होने के आरोप लगे। आरोप है कि कोरोना के चरम के समय और उसके बाद धीरे-धीरे 45 करोड़ रुपए जारी हुए मुख्यमंत्री आवास के सौंदर्यीकरण पर। यह वह समय था जब दिल्ली में बिना अस्पताल, आक्सीजन के लोग दम तोड़ रहे थे। दुनिया की सभ्य-सभ्यताओं ने इंसान की अंतिम-यात्रा के लिए कंधों की सवारी ही चुनी है। वह कितना दर्दनाक समय होगा जब लोग चार कंधों की अनुपस्थिति में अपने अजीज के शव को चादर में लपेट कर जमीन पर घसीट कर अंतिम संस्कार के लिए ले जा रहे थे। ऐसी ही श्मशान सी बनी दिल्ली में वह इंसान कैसा होगा जिसे अपने घर को आलीशान बनाने की फिक्र हुई।
जनता के करोड़ों रुपये उस घर में खर्च किये जो आम आदमी के नेता के लिए बना है
यह वही मुख्यमंत्री हैं, जो केंद्र सरकार के साथ मुख्यमंत्रियों की बैठक में हाथ जोड़ कर दिल्ली वालों को बचाने की प्रार्थना करने लगते हैं। कैमरे के सामने इतनी बार आक्सीजन-आक्सीजन बोले कि उस वक्त लगा, उनके लिए भी आक्सीजन कम हो गई हो और सांस नहीं ले पा रहे हों। पर, कैमरे के पीछे उसी ‘छोटी औकात’ वाले आदमी के लिए लाखों-करोड़ों के पर्दे, कालीन मंगवाए जा रहे थे। करोड़ों का यह खर्च उस जगह के लिए हो रहा था जिसे ‘सरकारी घर’ कहते हैं। यानी, जब आपकी सरकार नहीं होगी तो आपको उसे खाली कर देना होगा। जैसा, पिछले दिनों राहुल गांधी ने किया। राहुल गांधी की चाबी सौंपती तस्वीरों को देख कर क्या अरविंद केजरीवाल को एकबारगी दुख हुआ होगा कि जनता के करोड़ों रुपए उस घर पर क्यों गंवाए जिसकी चाबी जनता के पास है?
जनता जब चाहे आपको उस घर के लिए अयोग्य करार दे सकती है। जिस जनता के सामने आपने खुद को छोटी जरूरतों वाला इंसान बताया था उसी के सामने अपनी जरूरतें इतनी बड़ी कर ली कि आम आदमी तो समझ नहीं पाएगा कि जितने पैसों में सैकड़ों घर बन सकते हैं उतने में सिर्फ एक घर को संवारा गया। जितने पैसे में कई अस्पतालों का आधुनिकीकरण हो सकता था वह मुख्यमंत्री के घर को सुंदर बनाने पर खर्च कर दिया गया।
जिस जनता के कथित 45 करोड़ रुपए सौंदर्यीकरण पर खर्च हुए उसके अपने सपने कितने छोटे हैं इसका अनुभव तो आम आदमी पार्टी को होगा ही। यह वही जनता है, जिसने आम आदमी पार्टी को इसलिए वोट दिया कि मुफ्त बिजली-पानी मिलेगी तो घर के बजट में राहत होगी। मोहल्ला क्लीनिक में इलाज होगा तो पूरी तनख्वाह अस्पताल में नहीं देनी पड़ेगी।
आम आदमी पार्टी पूरी दुनिया में अपने सरकारी स्कूल का ढिंढोरा पीट रही है कि दिल्ली के लोगों को सस्ते में अच्छी शिक्षा मिल रही है। जो लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल भेज रहे हैं क्या आम आदमी पार्टी ने उन्हें बताया कि उनके कर के पैसे को मुख्यमंत्री का घर स्वर्ग से सुंदर बनाने में झोंक दिया जा रहा है।
अरविंद केजरीवाल के घर के नवीनीकरण में करोड़ों रुपए खर्च होने का आरोप लगते ही उस समाचार चैनल समूह का वीडियो प्रचारित हुआ, जिसके पत्रकार को आम आदमी पार्टी की पत्रकार वार्ता में आने से रोक दिया गया। पत्रकार पार्टी के दफ्तर के बाहर खड़ा है और आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह की ओर उम्मीद से देखता है कि वे पत्रकार वार्ता में बुला लें। संजय सिंह ने इशारा किया बात करते हैं। गाड़ी अंदर चली गई और देर से खड़े पत्रकार के मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया गया।
बंद दरवाजे के परिदृश्यमें पत्रकार कैमरे के सामने कहता है, ‘हम संजय सिंह को तब से देख रहे जब गाजियाबाद में दफ्तर होता था। अरविंद केजरीवाल जब रात में रेल भवन के बाहर सो गए थे। ये देखिए दरवाजा बंद। तेवर, मीडिया के लिए रवैया बहुत बदल गया है। गेट आपके मुंह पर लगा दिया?’ आम आदमी पार्टी ने कैमरे को लोकतंत्र का प्रतीक बना दिया था। लोगों को लगा कि यही कैमरा सब कुछ ठीक कर देगा। कैमरे के सामने उठने-बैठने, खाने-सोने वाले अब मीडिया के कैमरों को प्रतिबंधित कर रहे हैं।
आज सवाल है कि जनता क्या उस पुराने तेवर की मांग कर सकती है, जब अरविंद केजरीवाल कहें कि सारे आरोप झूठे हैं, चलिए आप लोग खुद हमारा बंगला देख लीजिए, वह वैसा ही है जैसा शपथग्रहण के समय था। उतना ही काम करवाया गया है जितना परिवार के साथ रहने और मुख्यमंत्री आवास के लिए जरूरी था। नया सच यह है कि जब कोरोना का डेल्टा कहर चल रहा था तब अरविंद केजरीवाल के बंगले के लिए वियतनाम से ‘डियो पर्ल मार्बल’ मंगवाया जा रहा था।
जनता और केजरीवाल के बीच पारदर्शिता तो कब का इस्तीफा दे चुकी है। दोनों के बीच राजा और रंक की दूरी आ चुकी है। अब केजरीवाल के घर की जमीन ऐसी सफेद संगमरमरी है जिस पर लगे जनता के सवालों के दाग उनके पूरे राजनीतिक युग को दागदार करेगी। आने वाली पीढ़ी वैसी प्रजा की कहानी सुनेगी जिसने अपनी जेब में बिजली-पानी के पैसे बचाने के लिए उस राजा को चुन लिया जिसके खर्च का अंदाजा लगाना उसके जोड़-घटाव वाले गणित की क्षमता से बाहर का है।
अब कहीं बेकार पड़ी नीली ‘वैगन आर’ खुश हो रही होगी, चलो मेरा साथ निभाने के लिए पुराना बंगला भी आ गया। अरविंद केजरीवाल ने उस लाज के महल को गिरा दिया है, राजनीति में जिसकी मांग के लिए बड़ा आंदोलन किया। शुचिता, सादगी को लेकर आम आदमी के दिए हादसों की कड़ी के बाद इस महाहादसे पर दिल्ली की जनता कहीं यह न कहने लगे-मुहावरों की किताबों में ‘सस्ता रोए बार-बार’ के प्रतिनिधि हम ही हैं। सस्ते वाली ये सरकार हमें बहुत महंगी पड़ रही है।