2014 में चुनावी अंगीठी पर भ्रष्टाचार के साथ परिवारवाद की हांडी भी चढ़ी थी। कांग्रेस पर वंशवादी होने का आरोप लगा और जनता ने उसे जुर्म की सजा दी। सजा को भोग कर कांग्रेस ने संगठन से लेकर राजनीतिक शैली में बदलाव किया। लेकिन, जो पक्ष परिवार-परिवार का आरोप लगा रहा था 2024 के लिए उसने ऐसे छोटे राजनीतिक दलों का मेला लगा लिया है, जिनमें से कई पर वंशवाद का बिल्ला चस्पा है। अजित पवार के भाजपा में आते ही ‘परिवार अच्छे हैं’ हो गया है। चिराग पासवान पिता की विरासत पर काबिज होना अपना कुदरती हक मान रहे हैं। किसी लोकतांत्रिक देश के ढांचे की सबसे छोटी इकाई परिवार ही होते हैं। परिवारों की राजनीतिक समझ का समुच्चय ही सत्ता में स्थापित होता है। पहले सत्ता हासिल करने के लिए परिवार को नकारात्मक बताया, अब सत्ता में बने रहने के लिए वंशवादियों से कोई दिक्कत नहीं है। परिवार से परिवर्तन का क्या संबंध है, इसकी वैधानिक चेतावनी देता बेबाक बोल।
सब लोग जिधर वो हैं
उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की
नजर देख रहे हैं
-दाग देहलवी
भारत में किसी जगह की कथा। यह कथा शुरू होती है एक परिवार से। परिवार में विवाह योग्य युवती के लिए कई रिश्ते आ रहे थे।
कई प्रस्तावित रिश्तों पर सोचने-समझने के बाद युवती ने दो लड़कों को चुना और दोनों से मिलने का फैसला किया। युवती पहले युवक ‘अ’ के यहां गई। युवक ‘अ’ का परिवार सात पुश्तें बैठ कर खा सकती हैं मार्का अमीर था। घर किसी राजमहल सा था। परिजनों से मिलने के बाद युवती ने युवक ‘अ’ के दोस्तों के साथ मिलने की इच्छा जाहिर की।
युवती उन जगहों पर गई जहां युवक ‘अ’ अपने दोस्त के साथ जाता था, और उसी माहौल में उसके मित्रों से मिली। युवती ने देखा कि युवक ‘अ’ के दोस्तों का अपना कोई वजूद नहीं है। उन्होंने युवक ‘अ’ से सिर्फ इसलिए दोस्ती कर रखी है क्योंकि वह काफी पैसे वाला है और दोस्तों का खर्चा-पानी उठाता है। दोस्त हमेशा ‘अ’ की झूठी तारीफ करते रहते हैं, और वह आत्ममुग्ध होकर उन पर बेशुमार खर्च करता रहता है।
इसके बाद युवती ने युवक ‘ब’ के परिजनों व दोस्तों से मिलने की इच्छा जताई। युवक ‘ब’ का परिवार साधारण तरीके से जीवनयापन करते हुए खुशहाल जिंदगी जी रहा था। उसके माता-पिता कोई रसूख वाले नहीं थे। युवक ‘ब’ ने पढ़-लिख कर समाज में अपनी एक जगह बनाई थी। युवक ‘ब’ के परिजनों को पता भी नहीं था कि लोग उनके बेटे की बौद्धिकता को कितनी इज्जत देते हैं। युवती, युवक ‘ब’ के दोस्तों से मिलने गई। युवक ‘ब’ के दोस्त काफी पढ़े-लिखे रसूखदार लोग थे और ‘ब’ की इज्जत इसलिए करते थे कि वह एक दानिशमंद इंसान था। उनकी दोस्ती का दायरा पठन-पाठन से लेकर सामाजिक कार्यों तक फैला हुआ था। ‘ब’ की कोशिश होती थी कि अपने सामाजिक दायरे से वह कुछ सीखे और आगे बढ़े।
युवती ने अपने परिजनों को फैसला सुना दिया कि वह युवक ‘ब’ से शादी करना चाहती है। परिजनों का सवाल था कि एक अमीर घर के युवक को छोड़ कर वह साधारण परिवार को क्यों चुन रही है? युवती का कहना था कि वर के लिए चयन का आधार बने दोनों के मित्र। मां-बाप तो आपको जन्मना मिलते हैं, जिस पर आपका कोई जोर नहीं होता। लेकिन, दोस्ती आप खुद से करते हैं। यह आपके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है कि आपके दोस्त कैसे होते हैं। युवक ‘ब’ साधारण परिवार से है, लेकिन उसके दोस्त अपने-अपने क्षेत्र के असाधारण लोग हैं। उसकी दोस्ती, उसका सामाजिक दायरा खुद का बनाया हुआ है जो अमीर खानदान के युवक ‘अ’ से कहीं श्रेष्ठ है। इसलिए मैं शादी के लिए युवक ‘ब’ का चुनाव करना चाहती हूं।
पहले परिवारों का राजनीतिक मिजाज बदलता है तब धीरे-धीरे सत्ता बदलती है
भारत जैसे देश में परिवार की अपनी महत्ता है। हर संस्कृति की तरह यहां भी परिवार को समाज की सबसे छोटी इकाई माना जाता है। देश में किसकी सत्ता है, या किसकी आने वाली है, यह जानने के लिए आप चंद परिवारों के घर घूम आइए। आपको राजनीतिक माहौल के बारे में जो जानकारी मिलेगी वह किसी समाचार चैनल के बताए विश्लेषण से ज्यादा भरोसेमंद होगी। भारत जैसे देश में सत्ता परिवर्तन ऊपर से नीचे की ओर नहीं, नीचे से ऊपर की ओर होता है। पहले परिवारों का राजनीतिक मिजाज बदलता है तब जाकर धीरे-धीरे सत्ता बदलती है। सरकार परिवर्तन की धुरी परिवार ही हैं।
अगर देश पर लंबे समय तक किसी खास परिवार ने शासन किया तो वह भी इसलिए कि देश के लाखों परिवारों को वह ‘परिवार’ पसंद था। इसलिए कि उसने नए आजाद देश की जनता की उम्मीदों वाली सरकार देने का वादा किया था। जिस दिन देश के परिवारों ने तय किया, अब नहीं उसी दिन से उस परिवार के लिए राजनीतिक अस्तित्व का संकट आ गया।
UCC से आदिवासी समुदाय को भी अपनी सभ्यता-संस्कृति नष्ट होने का खौफ
कोई भी परिवार अपनी संतति से बनता है। इसलिए शादी में चयन को लेकर संवेदनशीलता बरती जाती है। गलत शादी सिर्फ दो लोगों का जीवन ही नहीं बर्बाद करती है, बल्कि दो परिवारों पर भी बुरा असर डालती है। शायद, इसलिए देश में शादी एक संवेदनशील मसला है। समान नागरिक संहिता का सारा पेच यहीं फंसता है। आज आदिवासी समुदाय भी खौफ जता रहे हैं कि इससे हमारी सभ्यता-संस्कृति का क्या होगा। सुशील मोदी अपनी सरकार से गुजारिश कर रहे हैं कि समान नागरिक संहिता को आदिवासी समुदाय से दूर रखा जाए क्योंकि इससे उनके परिवार की व्यवस्था पर संकट आ जाएगा।
परिवार शब्द इतनी बार बोला गया कि जैसे 2024 में नेता नहीं अपने लिए जीवनसाथी चुनना है
बंगलुरु और दिल्ली में ‘इंडिया’ और ‘एनडीए’ की बैठक के साथ 2024 का शंखनाद कर दिया गया है। दस साल बाद भी बीच बहस में ‘परिवार’ है। इसलिए स्तंभ के शुरू में बात परिवार और शादी की महत्ता से। चुनावी मैदान में परिवार शब्द इतनी बार बोला गया है कि अब लग रहा जैसे 2024 में देश के लिए नेता नहीं अपने लिए जीवनसाथी चुनना है।
सवाल है कि आप वैधानिक रूप से जीवनसाथी चुनते क्यों हैं? अपने परिवार को आगे बढ़ाने के लिए? क्या इन दिनों आपका जेहन भी परिवार शब्द सुनते ही स्वचालित तरीके से उसके साथ वाद को जोड़ देता है, परिवार के साथ एक नकारात्मकता की ध्वनि आने लगती है, जो परेशान करती है?
परिवार इस सृष्टि की सबसे छोटी और खूबसूरत इकाई है। इंसान ही नहीं जानवर भी अपने परिवार और उसकी सुरक्षा को लेकर संवेदनशील होते हैं। परिवार शब्द इतना पवित्र और प्यारा है कि रक्त व गर्भनाल के संबंधों से आगे बढ़ चुका है। एकल महिला, व पुरुष बच्चा गोद लेने के लिए अदालतों में जा चुके हैं। समलैंगिक समुदाय अपनी शादी को कानूनी मान्यता मिलने की लड़ाई लड़ रहा है तो उसके पीछे भी परिवार की भावना है। ताकि, वे बच्चा गोद लेकर परिवार आगे बढ़ाना चाहें तो उनके बच्चों को आगे किसी तरह की कानूनी व सामाजिक दिक्कत नहीं हो।
ऐसे में भारत के चुनावी मैदान में पिछले दस साल से ‘परिवारवाद’ के नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा है। 2014 में एक खास परिवार की बात समझ में आई थी, और जनता ने उसके खिलाफ जनादेश भी दिया। जिसके खिलाफ जनादेश था, उसे बात समझ भी आ गई और उसने पूरा देश पैदल घूम कर अपनी पहचान बनाने की कोशिश की। यह शून्य से शुरू करना सरीखा था।
एक पक्ष ने वंशवादी होने की जनता से मिली सजा को भोगा। अब सवाल दूसरे पक्ष पर है। दूसरे पक्ष ने क्या किया? अपने आस-पास छोटे-छोटे परिवारों का मेला लगा लिया। अब मेले के बीच से दावा किया जा रहा है कि मेरे परिवार की पोशाक तुम्हारे परिवार की पोशाक से ज्यादा सफेद है।
भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय क्षत्रपों की अगुआ पीढ़ी के अवसान के बाद वही बचे हैं, उन्हीं की संतति आगे बढ़ पाई है जिन पर जनता को भरोसा हुआ है। आज आपको नवीन पटनायक के पिता का नाम याद करने के लिए गूगल का सहारा लेना पड़ सकता है, क्योंकि उन्होंने अपने पिता से अलग पहचान बना ली है। राजनीतिकों की संततियों को भी हक है राजनीति चुनने का। बशर्ते वे जनता के बीच मेहनत से अपनी पहचान बनाएं।
2014 में जिस सत्ताधारी राजनीतिक समूह पर परिवारवाद का आरोप लगा था, 2024 के लिए उसने अपना नाम भी बदल लिया है। खास बात है कि आज विपक्ष की अघोषित अगुआई उसी नेता के पास है जिसे वंशवादी कह कर खारिज किया गया था। वह भी उसी ‘भारत’ के नाम पर चुनाव मैदान में है परिवार की पहचान छोड़ने का दावा कर।
तो अब 26 बनाम 39 के बाद भी क्या ‘प’ से परिवार ही बोला जाएगा? ध्यान रखिए चुनावी लग्न के पहले जनता दोनों के परिवारों के गुणों का मिलान कर लेगी। क्या शरद पवार का साथ छोड़ते ही अजित पवार का पारिवारिक अवगुण गुण में बदल जाएगा? अगर अब भी सिर्फ ‘परिवार-परिवार’ होगा तो सावधान। यह जनता की वैधानिक चेतावनी है। प से परिवार ही नहीं, प से परिवर्तन भी होता है।