देश की राजधानी दिल्ली, जहां दो दल अपने अधिकारों की लड़ाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लेकर अध्यादेश तक के चरम पर हैं, वहां शाम के धुंधलके में सड़क पर एक लड़की की बेरहमी से हत्या होती है। जब एक लड़का, एक लड़की को चाकुओं से गोद कर उसके सिर को पत्थर से कुचल रहा था तो वहां से गुजरते लोगों की आंखों में नैतिकता की इतनी रोशनी नहीं थी कि इसे देख वहशी को रोकते। राजनीतिक दलों ने दिल्लीवालों की आंखों से भी कर्तव्य बोध का नूर छीन लिया है। सत्ता के कर्णधारों की तरह जनता की आंखों में भी मैं-मैं की खुदपरस्ती का अंधेरा आ गया है। मारी गई नाबालिग पूछ रही है, नई संसद में दिल्ली के अधिकारों के बाबत अध्यादेश पर मतदान होगा तो भाजपा-आप में से कोई बताएगा कि मैं किसकी जिम्मेदारी थी? बेबाक बोल में अधिकारों के लिए लड़ती सत्ता, आंखों को घर की आलमारी में बंद कर सड़क पर निकलती जनता और बेहिस हो चुके नेताओं पर एक नजर।

ऐ वाए इंकलाब
जमाने के जौर से
दिल्ली ‘जफर’ के हाथ से
पल में निकल गई

कहती थी, मैं वकील बनूंगी…कहा था तुझे जो बनना है बन जाना…मैं और मेहनत करूंगा…मुझे यकीन नहीं हो रहा कि वह अब इस दुनिया में नहीं है… अब शायद इस दुनिया में एक बाप ही है जो ऐसा कह सकता है। अपनी बेटी के नहीं होने पर यकीन नहीं कर सकता है। यकीन नहीं कर सकता कि जिस बेटी के सिर पर हाथ रख कर कहता था, जो बनना है बन, उस सिर को पत्थरों से कुचल दिया गया, उसके पहले शरीर को चाकुओं से गोद दिया गया। कहां से आई किसी में नफरत, इतना दुस्साहस? एक नागरिक के अंदर कहां से आया इतना जहर व तमाशबीनों में मैंने कुछ नहीं देखा वाला चुनिंदा अंधापन।

भारत में केंद्रीय सत्ता अपनी राजनीतिक शक्ति ‘नई दिल्ली’ तक ही महसूस कर रही है

यह सब दिल्ली में हुआ है। देश की राजधानी दिल्ली में। पिछले एक दशक में यहां अधिकारों की लड़ाई तेज है। दुनिया भर में किसी देश का गर्व वहां की राजधानी होती है। मास्को, वाशिंगटन डीसी, बेजिंग, इस्लामाबाद, बर्लिन, ढाका से लेकर कोलंबो। किसी देश की केंद्रीय सत्ता का शासन का प्रतिनिधि वहां की राजधानी होती है। अगर हम कह रहे हैं कि बेजिंग ने यह कहा, ऐसा माना तो मतलब यह चीन की केंद्रीय सत्ता बोल रही है।
लेकिन, भारत में केंद्रीय सत्ता अपनी राजनीतिक शक्ति ‘नई दिल्ली’ तक ही महसूस कर रही है।

आधिकारिक ‘नई दिल्ली’ शब्द दूतावासों और औपचारिक परिपत्रों तक सीमित सा लगता है, क्योंकि केंद्रीय सत्ता पूरी दिल्ली को हासिल नहीं कर पाई है। भले ही वह सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा कर सकती है, केंद्र से लेकर कई राज्यों तक दखल रख सकती है, लेकिन दिल्ली में केंद्रीय सत्ता का घर जब अपनी खिड़की खोलता है तो सामने दूसरी पार्टी के मुख्यमंत्री का पोस्टर हाथ जोड़े मुस्कुराता है और अचानक से उसकी केंद्रीयता का गर्व थोड़ा कम हो जाता है।

वहीं, जिसका दिल्ली में शासन है वह पूर्ण राज्य के अधिकार चाह रहा है। दिल्ली को लेकर उसका एक ही सूत्र वाक्य है-‘काम नहीं करने देते हैं जी’। ‘हमें दिल्ली पुलिस देकर देखो’। ‘दिल्ली को पूर्ण राज्य बना दो’। दिल्ली की सत्ता में अधिकारों की यह लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची, और सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के अधिकार कम किए तो अध्यादेश का सहारा लिया गया। अब आम आदमी पार्टी केंद्र के अध्यादेश को संसद में परास्त करना चाहती है और इसके लिए वह कांग्रेस की मदद मांग रही है। उन शरद पवार की मदद मांग रही है जिन्हें अरविंद केजरीवाल अपने ट्वीट में अपमानजनक तरीके से भ्रष्ट ठहराते थे।

अहम है अध्यादेश के खिलाफ ‘आप’ का कांग्रेस से मदद मांगना। मामला अफसरों की तैनाती और तबादले का है, जिस पर केंद्र सरकार अध्यादेश ले आई है। तो बिना अफसर, कैसा शासक। अब दिल्ली कांग्रेस के नेता कांग्रेस के केंद्रीय नेता को वह कहानी याद दिला रहे हैं जो अभी बहुत पुरानी नहीं हुई है। अण्णा आंदोलन के जरिए आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस की राजनीतिक साख ऐसी खत्म कर दी कि उसके पास संसद में विपक्ष कहलाने लायक रुतबा नहीं बचा।

हास्यास्पद है आम आदमी पार्टी का कांग्रेस से सहयोग मांगना

विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में तीसरी शक्ति बनकर इसने कांग्रेस को अधिकतम नुकसान पहुंचाया। आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस पर जितना प्रहार किया था, अगर वह दिल्ली में शक्ति हासिल करने के लिए उसे राजनीतिक औजार बनाने की बात कर रही है तो यह भी भारत के राजनीतिक इतिहास के प्रहसनों का नया अध्याय है। अभी तक के राजनीतिक हालात को देखते हुए यह अजूबा भी नहीं लगेगा, अगर कांग्रेस संसद में आम आदमी पार्टी को शक्ति-प्राप्त करने में सहयोग कर दे। उसी पार्टी का सहयोग जिसके कारण पूरे देश की जनता कांग्रेस के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला बैठी थी।

सत्ता के लिए सीटों के समीकरण में जनता का कोई मोल नहीं रह गया है

राजधानी में नाबालिग लड़की की हत्या में दिल्ली के इस राजनीतिक संदर्भ को लाना मुद्दे से भटकाना नहीं, बल्कि मुद्दे पर लाना है। पिछले स्तंभ में महिला पहलवानों के संदर्भ में कहा था कि किसी देश में स्त्रियों की हैसियत कैसी होगी, यह वहां की राजनीति तय करती है। इसी तरह किसी देश या अन्य जगह के नागरिकों का मिजाज कैसा होगा यह वहां की राजनीति तय करती है। पिछले सालों में दिल्ली से लेकर पूरे देश की राजनीति गैरजिम्मेदारी की लगती है। सत्ता के लिए सीटों के समीकरण में जनता का कोई मोल नहीं रह गया है।

राजनीतिक दल एक-दूसरे के लिए जिस तरह गैरजिम्मेदार क्रूर भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह सुनते-सुनते जनता के मन में भी एक क्रूरता बस गई है। स्कूल की दुनिया से निकल कर कालेज जाने वाले युवा यही देख कर बड़े हुए कि सत्ता अपने अधिकार को बढ़ाने के लिए कुछ भी कर सकती है। वह किसी की मौत पर संसद ठप कर सकती है तो किसी की मौत पर ऐसा माहौल बना सकती है कि सड़क पर मामूली हलचल भी न हो। जब-जब राजनीति ने शुचिता को परे रख खुद को सिर्फ और सिर्फ शक्ति का पर्याय बनाने की कोशिश की है तब-तब नागरिक भी मानसिक रूप से बेलगाम हुए हैं।

सड़क पर का हर नागरिक भी मानसिक रूप से इतना बंट चुका है कि वह किसी के ‘न’ कहने पर उसे चाकुओं से गोद कर पत्थर से सिर कुचल सकता है। बस, दूसरों से अपनी बात को अपने तरीके से मनवाना ही उसके जीवन का लक्ष्य है। वही सत्ता से नीचे तक आया अहंकार कि मुझे ‘न’ कैसे बोला, मेरे पास हां करवाने की शक्ति है किसी इंसान को ऐसा वहशी बना देती है।

क्या नाबालिग लड़की की हत्या की पहली दोषी दिल्ली की ये सियासी ताकतें नहीं हैं? उपराज्यपाल साहब जितनी नजर दिल्ली सचिवालय पर रखते हैं उतनी ही नजर कानून-व्यवस्था पर रखते तो? वहीं आंदोलन स्मरणीय केजरीवाल साहब कहीं ये ही दावा न कर दें कि देखो गली में बिजली कितनी सही थी कि कैमरे में सब रिकार्ड हो गया। हम हत्या-हत्या कहेंगे और वे मुफ्त बिजली, पानी और औरतों की मुफ्त बस यात्रा पर टिके रहेंगे।

दूसरी ओर, दिल्ली वालों के दिल पर सवाल है, जिन्होंने इस वारदात को देखते हुए घर के खिड़की-दरवाजे बंद कर दिए। आस-पास से गुजर रहे किसी इंसान में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वह लड़के को लड़की की जान लेने से रोक ले।

‘आप’ कह रही कि जो थोड़ी सी जिंदगी जुटाई है वह मुझे शक्ति देने में कुर्बान कर दो

लड़की के सिर को पत्थर से कुचलता साहिल और देखती हुई दिल्ली की जनता। अब तो एक नागरिक ही दूसरे नागरिक के खिलाफ खड़ा है। एक लड़की को कोई पत्थरों से कुचल कर मार रहा है और दस लोगों के हाथ उस पत्थर को रोकने के लिए नहीं उठ सके। घर और उसके दरवाजे से गुजरने वाली गली सत्ता के गलियारे के प्रतिनिधि बन चुके हैं। वैसी सत्ता, जहां किसी को जनता से मतलब नहीं है। वैसी सत्ता, जहां भ्रष्टाचार के आरोप से कांग्रेस को राजनीतिक मौत देनेवाली ‘आप’ अब कह रही कि जो भी थोड़ी सी जिंदगी जुटाई है वह मुझे शक्ति देने में कुर्बान कर दो।

आम आदमी पार्टी, भाजपा, कांग्रेस…क्या इन तीनों में से कोई नाबालिग की मौत की जिम्मेदारी लेगी? क्या इन तीनों में से कोई कहेगा कि नागरिक सड़क पर हत्या को देख कर नेत्रहीन की तरह आगे बढ़ जाते हैं, यह हमारी सियासी नाकामी है? नहीं, आगे तो कुछ और दृश्य होगा। बहुत जल्द संसद में दिल्ली की शक्ति को लेकर नुमाइश होगी, और सोलह साल की लड़की की जिंदगी की जिम्मेदारी इन तीनों में से किसी की नहीं थी, इसकी आपसी समझाइश होगी। कोई कहेगा अफसर हमारे, कोई कहेगा पुलिस तुम्हारी। सड़क पर मरती लड़की किसकी जिम्मेदारी थी, इसकी बात कोई नहीं करेगा। नई संसद में वही पुरानी रवायत होगी, यह शक्ति हमारी, वह शक्ति तुम्हारी, जनता हममें से किसी की भी नहीं। वहीं सड़क पर अंधी हुई जनता संसद तक क्या ही देख पाएगी।

सत्ता के साथ दिल्ली की जनता चाहे जितनी देर आंखें बंद कर ले, लेकिन इतिहास हमेशा अपनी आंखें खुली रखता है। इसलिए, स्तंभ के शुरू में बकौल जफर दिल्ली की हरजाई फितरत को याद दिला दिया। जो, सियासी अधिकारों से दिल्ली के दिल पर सदा के लिए काबिज होने का ख्वाब पाले हैं, जरा आखिरी मुगल से ही कुछ सीख लें।