मेरी जबान के मौसम बदलते रहते हैं मैं आदमी हूं मेरा एतबार न करना-आसिम वास्ती

अयोध्या में जो राम राज्य लाने का दावा किया गया था, बिहार की सीमा में प्रवेश करते ही उसमें थोड़ा संशोधन किया गया। ‘रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाय पर वचन न जाई’ की पंक्तियों को विलोपित कर दिया गया। राजनीतिक सिद्धांत कहता है कि सामूहिक याद छोटी होती है, लेकिन आज के समय में राजनीतिक याद सबसे छोटी होने का विश्व रिकार्ड बना सकती है। भारतीय राजनीति में नेताओं के वचनों का स्मृतिलोप जिस तरह से महामारी का रूप धर चुका है उसने राजनीतिक नैतिकता के सभी दरवाजे बंद कर दिए हैं। हां, अवसरवाद के कपाट पर कोई थोड़ी देर के लिए भी कुंडी नहीं लगाना चाहता है। अयोध्या के जरिए राम राष्ट्र लाने का वादा करने के बाद बाद बजरिए बिहार तीव्रगामी मोड़ से रास्ता पलट लेने वाली राजनीति पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।

रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाय पर वचन न जाई

अभी-अभी तो देश में दावा किया गया था राम राज्य आने का। हर तरफ तुलसी की चौपाइयों की गूंज थी। राजा राम के आने पर झोपड़ी सजाने की बात की जा रही थी। राष्ट्र राज्य बनाम राम राष्ट्र पर बहस छिड़ गई। इसकी तुलना 1947 की स्थिति से करके भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आजादी का नाम दिया गया। कहा गया कि राम के आधार पर चलाए जा रहे राष्ट्र में किसी को दिक्कत नहीं होगी। यह देश मर्यादा पुरुषोत्तम के आदर्शों पर चलेगा।

अयोध्या कांड के समापन के साथ ही शुरू हुए बिहार कांड में सभी के वचन स्मृतिलोप के शिकार हो गए। स्मृतिलोप राजनीतिक महामारी का रूप ले चुका है। राम राज्य का आधार तुलसी का रामचरितमानस है। राजा राम के रघुकुल का आदर्श है, अपने दिए वचन की रक्षा। दिख रहा है कि आज के राजा राम वाले राज्य में तुलसी दास की ये पंक्तियां विलोपित कर दी गई हैं कि वचन जाने से बेहतर प्राण जाना है।

प्राण तो छोड़िए, अब एकमात्र धर्म है-सत्ता का संख्याबल। इसके लिए अगर सुबह के बोले को शाम में भुला दिया जाए तो उसे बोला हुआ नहीं कहते हैं। कभी शबरी के लिए राम उद्धारक बनकर आए थे, आज शबरी राजनीतिक दलों की उद्धारक बन रही है। किसी को शबरी की झोपड़ी की सुध नहीं, बस उसके जरिए सोने का राजभवन दिख रहा है। यह भी फर्क नहीं पड़ रहा कि वह रावण का महल है या राम का। बुराई पर अच्छाई की जीत की व्याख्या आज के राजनीति के संदर्भ में सोदाहरण करनी मुश्किल है।

अयोध्या-अध्याय के बाद नीतीश कुमार कहते हैं-‘यह नौबत इसलिए आई क्योंकि ठीक नहीं चल रहा था। थोड़ी परेशानी थी। हम देख रहे थे। पार्टी के अंदर से और इधर-उधर से राय आ रही थी। सबकी बात सुनकर हमने इस्तीफा दिया और सरकार को भंग कर दिया।’ सरकार को भंग कर दिया…यह बात इतनी आसानी से उस नेता ने कही जो कुछ समय पहले विपक्ष को इकट्ठा करने के मुश्किल काम में जुटे थे। जो अपना सीना फाड़ कर दिखाने को आतुर थे कि उनके अंदर प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनने की कोई इच्छा नहीं है, बस वो जनतंत्र को बचाने की खातिर विपक्ष को इकट्ठा करना चाहते हैं। उनके आग्रह और कोशिशों के बाद ‘इंडिया’ गठबंधन बन भी गया।

यह तो सभी को मालूम था कि क्षेत्रीय क्षत्रपों को साथ मिलाकर अगुआई करना आसान नहीं होगा। नीतीश कुमार ने कर्पूरी ठाकुर को याद करते हुए कहा था कि हमने तो अपने परिवार को आगे नहीं बढ़ाया। आज कुमार को देख कर लग रहा कि राजनीति में परिवार तो नाहक बदनाम है।

परिवारवाद के तहत किसी क्षेत्रीय क्षत्रप की उतनी संततियों ने शपथ नहीं लिया, जितनी बार नीतीश कुमार अकेले शपथ ले चुके हैं। संतति वाले क्षत्रप कम से कम सरकार के पांच साल चलने की तो कामना करते हैं। और, जब उनकी घर वापसी कराने वाले प्राकृतिक गठबंधन का हवाला देते हैं तो लगता है कि ‘प्राकृतिक’ शब्द इतना ‘कृत्रिम’ कभी नहीं हुआ था।

विपक्ष को राह बता कर नीतीश कुमार आगे बढ़ते-बढ़ते तीव्रगामी मोड़ से खुद पीछे मुड़ गए। इसके बाद सभी पक्षों के बोल-वचन इंटरनेट पर वायरल हैं। जिसके जवाब में कहा जा रहा है कि राजनीति में कभी भी कोई दरवाजा बंद नहीं होता है। अब यही सच है। भारतीय राजनीति तो वह अवसरवादी छत हो गई है जो अपने नीचे कभी भी किसी शैली के खंभे, दीवार को जोड़ कर नया ढांचा और खिड़की-दरवाजे बना लेगी। भगवान के भी कपाट कुछ देर के लिए बंद होते हैं, लेकिन अवसरवादी राजनीति के कपाट के लिए तो शायद कुंडी बननी ही बंद हो गई है।

बिहार से राजनीतिक अवसरवाद का जो नया अध्याय लिखा गया है वह किसी खास दल की सरकार को भले मजबूत कर दे, लेकिन इससे कमजोर सिर्फ लोकतंत्र और नागरिकों का सम्मान हुआ है। इस राजनीति के लिए मतदाता अंगुली भर है जो नीले निशान के साथ सेल्फी डाल कर लोकतंत्र को मजबूत करने का दंभ पालता है।

हमने पिछले स्तंभ में भारत-रत्न कर्पूरी ठाकुर को ‘अमर’ लिखने में राजनीति के पुराने स्कूल के विद्यार्थी वाली भूल कर दी। अब जब राजनीतिक वचनों और नारों की उम्र सुबह से शाम तक की नहीं होती तो राजनीतिक शब्दकोश में ‘अमर’ भी अपनी उम्र गिन रहा होगा। नैतिक मूल्यों के बाद बात करते हैं, बिहार के बदले राजनीतिक समीकरण की।

सबसे पहले बात करते हैं शपथ-ग्रहण समारोह के बाद उपलब्ध दृश्यों की। किसी राज्य का सरकार गठन एक उत्सवी माहौल में होता है, खास कर सरकार बनाने वालों के चेहरों पर विजेता की खुशी होती है। लेकिन, दो चेहरों को छोड़ दें तो सभी के चेहरों पर अघोषित आगत का असमंजस दिख रहा था। नए कुनबे के रिश्तेदारों के चेहरों पर चेतावनी लिखी हो-सावधान! आगे नीतीश कुमार हैं।

दूसरी तरफ देखते हैं राजद के नेताओं की प्रतिक्रिया। तेजस्वी यादव और राजद के अन्य नेताओं की जितनी सधी हुई प्रतिक्रिया रही, उसे देख कर लग रहा कि फिलहाल वो नीतीश कुमार का अपमान कर उनके जुटाए वोट-बैंक को नाराज नहीं करना चाहते हैं। बिहार में नीतीश कुमार की राजनीतिक पूंजी वो अति पिछड़ा, महादलित समुदाय है जिसे उन्होंने लालू यादव की शक्ति के समांतर खड़ा किया था।

नीतीश कुमार, राजद के साथ सरकार चला रहे थे, इसलिए इस वर्ग को साधे रखने में राजद सावधानी बरत रहा है। पहले के दृश्यों के विपरीत सत्ता छिनने के बाद सड़क पर कोई हुड़दंग नहीं है, भाषा पर लगाम है तो इसलिए कि नीतीश कुमार की एकजुट की हुई जातियों के स्वाभिमान पर कोई चोट नहीं पहुंचाई जाए।

नीतीश कुमार को कभी चाणक्य का दर्जा दिया गया था। उनके ताजा पलटने के बाद के उनके बयानों को देख कर लग रहा है कि उन्होंने यह कदम किसी खास राजनीतिक समझ और समीकरण के तहत नहीं, बस खुद को राजा गढ़ने की मशीन मानने के अहंकार में ही उठाया है। अब इस मशीन ने जो कल-पुर्जे बदले हैं तो क्या आगे भी सत्ता का सांचा उनके पास रह पाएगा? अभी तक नीतीश वो तीसरी शक्ति रहे, जो जिस तरफ बैठते हैं उधर का पलड़ा भारी हो जाता है।

नीतीश कुमार ने पहले ललन सिंह को हटाया जो लालू यादव समर्थक माने जाते हैं। आज नीतीश कुमार उन दो उपमुख्यमंत्रियों से घिरे हुए हैं जो केंद्र के इंजन के कल-पुर्जें हैं, भाजपा के समर्थक हैं। पलटने के बाद नीतीश कुमार के बाएं और दाएं खड़े थे नए सहयोगी सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा। ये दोनों ही नीतीश कुमार के खिलाफ हमलावर रहे। नीतीश कुमार के दोहरे इंजन बनने पर बिहार में ही भाजपा के नेता बोल रहे हैं कि वे न तो खुश हैं और न दुखी।

ऐसे माहौल में नीतीश का सत्ता का वजन बदल देनेवाली तीसरी शक्ति बन जाना तो मुश्किल है, हां अब बिहार की लड़ाई आसानी से दो ध्रुवीय होती दिख रही है। वो नीतीश कुमार ही थे, जिन्होंने बिहार की राजनीतिक लड़ाई को ध्रुवीकृत होने से रोका था। अब यह भाजपा और राजद के लिए आमने-सामने और आर-पार की लड़ाई होगी।

देखना यह होगा कि बिहार की इस लड़ाई में नीतीश कुमार के खाते में शिकार का तमगा आता है या शिकारी का? क्या आगे के चुनावी नतीजों के बाद भी अन्य शक्तियां बोलेंगी कि सावधान! आगे नीतीश कुमार हैं? या फिर पर्याप्त राजनीतिक प्रदूषण फैला देने के आरोप में उनकी राजनीतिक गाड़ी की सड़क पर उतरने की उम्र ही समाप्त घोषित कर दी जाएगी।